सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

फ़रवरी, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दिल भी कैसा मोबाइल है

  दिल भी कैसा मोबाइल है                            -मिथिलेश  दिल भी कैसा मोबाइल है,  बहुत जगह है इसमें, ऊपर नीचे, आगे पीछे,  मैंने इसमें पकड़ रखे हैं,  खट्टे मीठे प्यारे लम्हे,  इसमें है आवाज तुम्हारी,  और बहुत सी तस्वीरें भी,  जब जब मेरा मन करता है,  देखा करती हूं मैं उनको,  उस पर कोई रोक नहीं है,  इंटरनेट साथ में ही है,  उस पर खर्च नहीं आता है। दिल भी कैसा मोबाइल है।                      -मिथिलेश           

माँ की याद में

माँ  की याद में                 -मिथिलेश   मुझे याद हैं अब भी  वो गहरी झील सी आंखें ।१। सतह पर तैरता दर्द का सैलाब,  करुणा से झुकी पलकें, भगवान के आगे झुका माथा, और ओठों से छूटते वो शब्द, "बहुत हो गया" और कब तक ।२। मुझे याद है अब भी,  एक आने की मूंगफली में, एकादशी का फलाहार, एक पुरानी धोती में, साल भर के बीतते त्योहार ।३। मुझे याद है अब भी, तुम्हारा अकेले में कहना, तुम्हारे पिता बड़े भले थे, कभी किसी का दिल नहीं दुखाया, कभी ज़ोर से नहीं बोले, जब ज़िंदा थे, बड़े ज़िंदादिल थे ।४। तुम्हारे निष्पाप शब्दों से बनी,  पिताजी की वह तस्वीर, मुझे वर्षों प्रेरित करती रही, मन के इस खालीपन को, आदर्शों से भरती रही ।५। आज भी जब हार जाती हूं, बौछारों से जब बोझिल हो जाती हूं, तुम्हारी झील सी आंखें, मुझे अंदर तक पिघला जाती है ।६। तुम्हारे शब्द। बार बार मेरे कानो से टकराते हैं, बेटा, यही सही,  ऐसा भी होता है, ज़िन्दगी ऐसे ही जी लो,  जो कुछ भी ...

आस का पंछी

आस का पंछी           - मिथिलेश कुमारी                       आस का पंछी                   मिथिलेश कुुमारी          था सुखों का स्वप्न देखा रात भर, मन गगन पर चंद्रिका छाई रही।l ओस जब टपकी नयन के द्वार से, सत्य ने पूछा, सवेरा हो गया? सत्य ने पूछा-सबेरा होगया? भावना की किरण भीगी डाल पर, आस का पंछी बनाए नीड  था। तीर मारा तभी निर्मम भाग्य ने, कल्पना का शिशु सदा को सो गया। कल्पना का शिशु सदा को सो गया----- कौन कहता मौन है अंतर्व्यथा? मुखर होकर पर्त उर के चीरती। रात भर जलती रही जो वर्तिका, प्रातः बन कर सो गई, वह पीर थी। प्रात बनकर सो गई,वह पीर थी।

पीडा का दंश

पीड़ा का दंश                - मिथिलेश कुमारी                पीडा का दंश पीड़ा का वह दंश, और तड़पन यह मन की, शब्दों के वे तीर और, उलझन जीवन की ..... किसे दिखाकर तपन बुझा लूं? किसे सुनाकर अश्रु बहा लूं?   किसके कंधे माथा टेकूं? किसके चरण, शरण मैं पा लूं? ... वृद्ध हुए सपने सज सज कर, कैसे बीत गई तरुणाई, पीड़ा चिर नवीन हो बैठी, साथ रही बन कर तनहाई...... सुबह शाम की लुकाछुपी में कोई किसी को पकड़ न पाया सूरज चन्दा दोनों हारे आसमान ने है भरमाया....

कौन देश जाते दिनकर

कौन देश जाते हो दिनकर                       - मिथिलेेेश        कौन देश जाते  हो दिनकर कौन देश जाते  हो दिनकर? धरती मां को रोज़ रुलाकर, क्या तुमने भी खोया है कुछ, जिसे खोजते डूब डूब कर? ××× मेरी भी है एक गुजारिश, मत लाना तुम मोती चुनकर, ले आना वे दिन बचपन के, उदास हूं मैं जिन्हें खोकर !!! ××× पाकर खोना, खोकर पाना, दुनिया का दस्तूर यही है, शब्द अर्थ की लुकाछिपी में, दिल के जैसा चोर नहीं है!!! ××× सूनेपन की सेज सलोनी, चाहे जितने फूल बिछा लो, एक शूल को भी दुलराना, मन को क्यों मंजूर नहीं है? ××× बियाबान में शोर बहुत था, मैं जागी थी जिसको सुनकर, तन अब तक भी सिहर रहा है, अनजाने में किसको छूकर!!! ××××××××

खेत में फसल

   खेत में फसल          - मिथिलेश कुमारी खेत में फसल खेत में जब फसल ऊगी, लहलहाती, मुस्कुराती, पवन ने उसको दुलारा, और सूरज की किरण ने   चुनरिया पीली ओढा दी, चटक रंग की, चमचमाती-----' काटकर जो ले गया ,   अधिकार से, उसको बता दो,  जड़ बिलखती छोड़ कर , शाखा नहीं जीती अकेली! टूट जाती,सूख जाती, जिन्दगी के तरल रस को दूर से ही देखकर, फिर तरस जाती --तरस जाती---- बेबसी में कुनमुनाती, सकपकाती, तड़फड़ाती, पर शिकायत करे किससे? सह न पाती, कह न पाती , और फिर अवसाद के, गहरे कुएं में, उम्र भर को डूब जाती। उम्र भर को डूब जाती----

ठहरो दीप अभी मत बुझना

ठहरो दीप अभी मत बुझना              - मिथिलेश       ठहरो दीप अभी मत बुझना           -----------------------                ठहरो दीप अभी मत बुझना। ज्वालाओं  को जल जाने दो,  युग युग की भूखी लपटों को,  सारा विश्व निकल जाने दो   .....   -ठहरो दीप अभी मत बुझना---  अभी बहुत सरगर्मी नभ में ,  थोड़ा दृश्य बदल जाने दो,  लगता राहें  शूल भरी है,  कुछ तो मुझे संभल जाने दो ,,,,,, --ठहरो दीप अभी मत बुझना।   किसका साथ कहां तक होगा    ये   सब बातें अनजानी  है ,   आसपास है सभी अजनबी   मन को जरा बहल जाने दो,,,,,,   ---ठहरो दीप अभी मत बुझना।।   कितना यह कोहराम मचा है ,   इस क्रदन को थम जाने दो ,   थोड़ा जहर बचा प्याले में   धीरे-धीरे  पी   लेने   दो,,,,,,,  --ठहरो दीप अभी मत  बुझना ।।     क्या सत्ता की भूखी  लपटें...

तुम्हारे दीप की अनमेल बाती

मै तुम्हारे दीप की अनमेल बाती                               - मिथिलेश  दीप की अनमेल बाती मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती     जल न पाती, बुझ न पाती, मैं तुम्हारे जिगर की हल्की तपिश भी, सह न पाती , सहम जाती, क्या सही है , क्या गलत है, मौन रहकर कह न पाती।     थरथराती, कंपकपाती ... मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती ।। आंधियां और तूफान तो आए बहुत थे , और बरसातें अंधेरी रात की भी , किंतु अपनी क्षीण काया में सिमटकर ,    जोर से जकड़े रही डोरी तुम्हारी ..।     लरजती सी , झिलमिलाती , मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती ..।। आस्था के ढेर में चिंगारियां थी,  और बिन मौसम झरी वे पत्तियां भी, कुछ जली कुछ अधबुझी सी,    चीख को भी राख में फिर।     दबा देती , गड़ा देती,  मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती....।। अधर पर सख्ती भरे पहरे लगे थे , और भीतर घाव कुछ गहरे लगे थे , जिगर में सैलाब जब भरपूर आया, आंख में ज...

ओस के मोती.

ओस के मोती                   - मिथिलेश      सिर पर तारों का ताज पहन, रातों के    मौन   अंधेरे में, जब आसमान रोया करता, चुपके चुपके सबसे छुपके! तब फूलों की कोमल पलकें, उसके आंसू झेला करती। कुछ सहम सहम,  कुछ झुक झुक कर, कुछ सिहर सिहर, कुछ झूम झूम कर। आंसू को ओस बना, प्रातः वही फूल मुस्काते हैं, दुख भी तो इतना सुंदर है, सारे जग को दिखलाते हैं! Xxxxxxx

ऐसा क्यों

ऐसा क्यों ------                    - मिथिलेश                                      ऐसा   क्यों......                 किसी अपराध की लम्बी सज़ा  सी ,ज़िंदगी  मेरी     जिसे मैं ,काटती तो हूं -- मगर कटती  नहीं है ...... एक काली रात  का,  साया पड़ा है ज़िंदगी पर, कल्पना की खोह में , मन का  मुसाफिर  सो गया है ...... ...... . .राह देखी भोर की , अब तक न कोई किरण फूटी, सुप्त मेरी आत्मा को ,  क्या कहूं क्या हो गया है .... . . ....जीत कर भी हार मेरी , हो गई है इस धरा पर , इसलिए परलोक का,  गहने...

ऐसा है आदमी

ऐसा है आदमी                        - मिथिलेश            ऐसा है आदमी                    ---                         भीड़ में अकेला ही,    जीता है आदमी ,   बाहर से भरा पूरा,    भीतर से  उतना ही,   रीता है आदमी,    ऐसा है आदमी।   ......    सौ सौ वरदानों पर ,    मुस्करा नहीं पाता,    अदना अभिशाप लिए ,     रोता  है आदमी,     ऐसा ही है आदमी....   स्वार्थ की चदरिया में,    कर्म को लपेटे है ,    खुद अपने  जाल बुने ,     फंसता है  आदमी .।      .ऐसा है आदमी....     एक बंद घेरे में,     घूमता निरंतर है ,    अंतहीन प्यास लिए,    लौटा है आदमी ,।      ऐसा है आदमी.....

मेरी गरल भरी गागर

मेरी गरल भरी गागर                    -मिथिलेश       मेरी गरल भरी गागर मेरी गरल भरी गागर को , दुनिया गंगाजल क्यों समझे।।    सबकी अलग अलग उलझन है, अलगअलग है परिभाषाएँ ,  अपने मन की गांठ खोल दे, जग को क्या, सुलझे न सुलझे ,......  मेरी गरल भरी गागर को,  दुनिया गंगाजल क्यों समझे।।   सबकी अलग अलग नज़रें हैं  ,   अलग अलग  ही हैं  वातायन,   तूने अपनी लघु सीमा को,      उनका दरवाज़ा क्यों समझा ?  मेरी गरल भरी गागर को,  दुनिया गंगाजल क्यों समझे।।   बाहर  बहतीं  विषम बयारें,   भीतर भी मौसम तूफानी,   क्यों शब्दों में राज़ खोल दूँ ?   जग की क्या, समझे न समझे?  मेरी गरल भरी गागर को,  दुनिया गंगाजल क्यों समझे।। पाप पुण्य की परिभाषाएँ,  सबकी अपनी अलग अलग  है, अपने अपने  पैमाने से,  सुख दुःख के भी माप अलग हैं, कोई नई  राह खोजे तो,  जग उसको...