ऐसा है आदमी
- मिथिलेश
ऐसा है आदमी
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भीड़ में अकेला ही,
जीता है आदमी ,
बाहर से भरा पूरा,
भीतर से उतना ही,
रीता है आदमी,
ऐसा है आदमी। ......
सौ सौ वरदानों पर ,
मुस्करा नहीं पाता,
अदना अभिशाप लिए ,
रोता है आदमी,
ऐसा ही है आदमी....
स्वार्थ की चदरिया में,
कर्म को लपेटे है ,
खुद अपने जाल बुने ,
फंसता है आदमी .।
.ऐसा है आदमी....
एक बंद घेरे में,
घूमता निरंतर है ,
अंतहीन प्यास लिए,
लौटा है आदमी ,।
ऐसा है आदमी....
जीत कर ज़माने से ,
ख़ुद से ही हारा है ,
डगर बड़ी लम्बी है,
छोटा है आदमी ।
ऐसा है आदमी.....
तन -मन की फिक्र छोड़,
धन के पीछे भागा ,
मुट्ठी की रेत यहीं ,
छोड़ गया आदमी......
भीड़ में अकेले ही,
जीता है आदमी,
बाहर से भरा पूरा,
भीतर से उतना ही
रीता है आदमी,.....
ऐसा ही है आदमी ।
ऐसा ही है आदमी।।
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