मैं जीती रहूंगी
*मिथिलेश खरे
मैं जीती रहूंगी
जिंदगी के पहले ,मर जाना नहीं,
बल्कि जिंदगी के बाद भी
जीना चाहती हूँ मैं ,
जीती रहूँगी यूं ही
पता है मुझे- हां ,पता है मुझे .....
पता है मुझे पता है मुझे
जब कभी मेरी बेटी
कोई पुरानी नोटबुक के
अनदेखे पन्नों को पलटेगी,
तब बार-बार मेरे शब्द
उसके दिल में उतर जायेंगे,
उसके दिल में उतर जाएंगे
पहले जो अनकहा रह गया था ,
वह सब फिर से कह जाएंगे !
पता है मुझे, पता है मुझे ---
पता है मुझे पता है मुझे
मेरी धीमी सी आवाज
कभी प्यार की ,कभी डांट की
कभी शिकायत की ,कभी उलाहना की
अकेले में उसे बार-बार सुनाई देगी
उसकी गहरी आंखों के कोरों को
अनायास ही नम करती रहेगी !
यूँ ही जीती रहूंगी मैं .....
पता है मुझे ,पता है मुझे ......
और फिर कभी फुरसत में
किसी पुरानी जर्जर साड़ी को
वह तहा कर रख देगी ,
उसी पुराने सूटकेस में ,
धीरे से यह कहते हुए कि
मम्मी ने पहनी थी यह!
कलकत्ते से लाई थी मैं
चौड़ी लाल किनार वाली साड़ी !
चौड़ी किनार वाली साडी
और उस किनारी के रेशे में उलझ कर
यूं ही जीती रहूंगी मैं
पता है मुझे ,जीती रहूंगी मैं.....
: और जब दिवाली में
पूरे घर कमरों की
सफाई होने लगेगी,
ओशो की मैगजीन और
अरविंद ,योगानंद की
पीली पड़ी पुरानी किताबें
वह नहीं दे पाएगी
रद्दी वाले को बुला कर ....
उन सदियों पुरानी जर्जर किताबों में,
मेरे रेखांकित वाक्यों को ,
हाथों से छू छू कर महसूस करते हुई
उसकी लंबी सांसों में
जीती रहूंगी मैं,हाँ जीती रहूंगी मैं
पता है मुझे --पता है मुझे...
✋
जवाब देंहटाएंBahut hii khoobsurat abhivyakti
जवाब देंहटाएंThanks neelu.
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