सपना बचपन का
-मिथिलेश
एक सपना मुझे बचपन से बार-बार आता था ।जबलपुर के घर का पहला कमरा है ।उसमें बीच में कोई सफेद चादर ओढ़ कर सोया हुआ है ।चादर पूरी इस तरह से ओढ रखी है कि सोने वाले का मुंह नहीं दिख रहा। घर में ढेर सी औरतों का जमावड़ा है । मेरी मां बीच में बैठी हुई है । फिर कुछ लोग आए चादर ओढ़े उस आदमी को वैसे ही कंधे पर उठाकर ले जाने लगे । मां जोर से चिल्लाने और रोने लगी और भागने लगती है। मैं मां की साड़ी का पल्ला पकड़ के खड़ी हो जाती हूं। भागती हुई मां को औरतों ने बहुत जोर से पकड़ रखा है ।चारों ओर से जकड़ रखा है । मै औरतों की इस भीड़ में घुस कर अपने छोटे छोटे हाथों से उन औरतों को मार रही हूं । मुझे उन पर बहुत गुस्सा आ रहा है । मैं सोच रही हूँ कि वे सब मिलकर मेरी मां को बहुत तंग कर रही हैं। और मैं मां को बचा रही हूं । यह सपना मुझे करीब 12 वर्ष की उम्र तक कई बार आता रहा । बड़े होने पर मुझे समझ में आया कि यह सब क्या है। पिताजी की मौत अचानक ह्रदय गति रुक जाने से हो गई थी। उस समय मैं उनके पास नहीं थी। पिताजी बड़े भैया के पास , जबलपुर आए हुए थे । बड़े भैया, भाभी उनका 6 महीने का बच्चा , बड़ी बुआ जी और छोटे भाई साहब , सब लोग, दिक्षितपुरा वाले घर में , मकान की पहली मंजिल पर रहते थे । मां 50 मील की दूरी पर सिहोरा में थी। नागपंचमी का दिन था । मां ने अपने हाथों में मेहंदी लगाई थी उस दिन। मां की उम्र करीब 40 वर्ष थी और मैं 4 साल की थी । उसके बाद सालों साल घर में पिताजी की कहानियां सुनाती रही बड़ी बुआ
बताती थी कि कितने दयालु थे पिताजी । कितने जिम्मेवार थे, परिवार की सब जिम्मेवारी ओढ़ रखी थी उन्होंने । नाराज तो कभी होते ही नहीं थे और ना कभी जोर से बोला करते थे । मां को उनकी मौत का समाचार सुनकर सिहोरा से जबलपुर ले जाया गया। मैं भी साथ में थी। जबलपुर के रेलवे स्टेशन पर , चाचा जी ने मुझे और मां को तांगे में बैठाया । तभी तांगे वाले ने पूछा कि कहां चलना है बाबूजी..?
चाचा जी ने तांगे वाले को जो जगह बताई कि दीक्षित पुरा में फलां फलांजगह चलना है , तो तांगा वाला बोला- अच्छा, हां जहां कल किसी आदमी का देहांत हो गया है। वही चलना है ना ? फिर मुझे याद है , मां ऐसा सुनकर बहुत जोर जोर से रोने लगी , तांगेे में ही बैठे बैठे मुझे तब तक देहांत शब्द का अर्थ नहीं मालूम था । मुझे समझ में नहीं आया कि मां किसी के देहांत की बात सुनकर इतना क्यों रो रही है । फिर मुझे याद है , जबलपुर के उस घर में, बीच के कमरे में सफेद चादर के नीचे कोई सोया था। मां गिर पड़ी थी उस सफेद चादर के ऊपर ।और पास बैठी औरतों की रोने की आवाज तेज हो गई थी । मुझे याद है बड़ी बुआ ने कहा था सब बच्चे छत पर जाओ वहीं रहना , इस कमरे में मत आना । मैं उर्मिला दीदी के साथ छत पर खेल रही थी। मैंने दीदी से कहा- चलो दीदी मरना मरना खेलते हैं हम। मरना शब्द औरतों से तभी तभी सुन लिया था, जो मां को घेरे हुए बैठी थी। उर्मिला दीदी ने डांट कर कहा था । नहीं , मरना मरना नहीं खेलेंगे, अच्छा नहीं होता है। बड़े होने पर मुझे समझ में आया था, बचपन का वो सपना पिताजी की मौत का दृश्य है जो बार-बार दिखता रहा ।बाकी बातें यादों में थी । कुछ हल्की , कुछ गहरी जो अंतर्मन में दूर तक चली गई होंगी और जीवन भर याद रही । अब 75 वर्ष हो गए इस बात को मुझे वह दृश्य कभी नहीं भूलता, सफेद चादर में लिपटा हुआ उनका मृत शरीर ।
मुझे पिताजी की शक्ल ज्यादा याद नहीं है ।एक श्लोक जो बचपन उन्होंने बोलना सिखाया था , वह मै कभी नहीं भूली । मां जब पूजा में बैठती थी तो सिंहासन में रखी भगवान की बहुत सी पीतल की मूर्तियां रखी होती थी। पास में कांच में मढी एक छोटी सी पिताजी की फोटो भी होती थी । फोटो के सामने पूजा के बाद में मां सिर झुका कर कहती थी - तुम चले गए, मुझे क्यों अकेला छोड़ दिया ? बच्चों को पालने के लिए? इस संसार में अकेला रहने के लिए ? इसी फोटो को सालों साल देखकर मेरे मन में पिताजी की तस्वीर बनी थी। यह उनके रिटायरमेंट के समय का जो ग्रुप फोटो था। उसमें से ही निकाल कर यह छोटा फोटो बनाया गया था। सिर पर काली टोपी , टाई और गले में पड़ी फूलों की माला । वह श्लोक जो पिताजी ने मुझे सिखाया था , मुझे अभी तक याद है---- "त्वमेव माता च पिता त्वमेव ,
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वम् मम देव देव।।।
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बालमन उसका भोलापन
जवाब देंहटाएंकच्चा मन उसका कोरापन
जो लिख गया अमिट हो गया
ताउम्र के लिए अंकित हो गया 🌾
Yes sudha....75 saal pahile ka scene bhi bhoola nhi hai.
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