ऐसा क्यों ------
- मिथिलेश
ऐसा क्यों......
किसी अपराध की
लम्बी सज़ा सी ,ज़िंदगी मेरी
जिसे मैं ,काटती तो हूं --
मगर कटती नहीं है ......
एक काली रात का,
साया पड़ा है ज़िंदगी पर,
कल्पना की खोह में ,
मन का मुसाफिर सो गया है ......
...... . .राह देखी भोर की ,
अब तक न कोई किरण फूटी,
सुप्त मेरी आत्मा को ,
क्या कहूं क्या हो गया है ....
.
. ....जीत कर भी हार मेरी ,
हो गई है इस धरा पर ,
इसलिए परलोक का,
गहने लगा मन आसरा है ......
उलझने कुछ कम नहीं हैं ,
किन्तु कोई गम नहीं है ,
बिंदु का विस्तार ,जीवन वृत्त में,
फिर हो गया है....
×××××××××
करुणामय से
शब्द तो आए अधर पर ,
किन्तु स्वर कब निकल पाए ,
है अकिंचन स्वयं ही जो ,
क्या, कहाँ, कैसे, लुटाए ?। ६।
मैं रही पथ की भिखारिन ,
द्वार पर कैसे बुलाते ?
शूल थे बोए भला ,
कैसे सुमन सेज पाए।७।
किन्तु ओ परमात्मा,
इतना मुझे वरदान दे दो
शूल पथ के बीन पाऊं ,,
हाथ में अधिकार दे दो।८।
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