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कैसा है ये मन

कैैसा है ये मन - पागल पंछी                            -मिथिलेश                      कैसा  है  ये    मन                   ----------------‐----      दिव्य   है,  सूरज- किरण सा ,      और     पावन  आत्मा सा ,      मलय  सा  सुरभित, सुकोमल ,      नाम   कुछ  उसका नहीं है ,....      प्राण  की डोरी  उसे है बांध  बैठी ,      मुक्त मन उन्माद  के क्षण जी गया है ,      प्यास पनघट पर, कहो किसकी बुझी है?,         और  पथिक भी  वीतरागी हो गया है ,.....        पी न पाया मधु कलश से ,फिर  पिएंगे,        मृत्यु कैसे रोक लेगी, फिर  जिएंगे। .. ...

फूल और कांटे

फूल और कांटे                  - मिथिलेश         फूल और कांटे यह ज़रूरी नहीं है मेरे दोस्त,  कि जो फूल बोए, उसे कांटे नहीं मिलेंगे, क्योंकि कांटों की तो मनमानी है कांटों की तो मनमानी है... वो तो राह चलते, कहीं भी मिल जाते हैं, जब उनका मन चाहे, किसी के भी पांव में कभी भी चुभ जाते हैं----- और फूलों के लिए ? फूलों के लिए तो   माकूल मौसम चाहिए, बीज ही काफी नहीं है, मेरे दोस्त....., फूल उगाने के लिए, अच्छी ज़मीन की जरूरत है, और उस से भी ज़्यादा जरुरी है, उसे रोज रोज दुलराना, रोज रोज़ पानी देना ....... और इतना ही नहीं, उसकी देखभाल करने वाला   होशियार माली चाहिये, जो जोर जोर से चिल्लाकर, दुनियां को वाकिफ रखे..... दुनिया को वाकिफ रखे इस ज़रूरी बात से, कि फूल उगने की, पूरी पूरी संभावना है और वह सम्भावना वाजिब है.. वाजिब है पूरी की पूरी इसलिए कि फूलका बीज पूर्व जन्म में ही सही, यहीं बोया गया था। यहीं बोया गया था।।               ...

तनहाई

 तनहाई         मिथिलेश                                    तनहाई                                  मैं हूं, मेरी तनहाई है,                    तनहाई में गहराई है,                    गहराई में इक दर्पण है,                   जिसमे दिखती है तस्वीरे।                           .वे तस्वीरें दूर बहुत है             कुछ बचपन की, कुछ यौवन की,           कभी चहकती ,कभी ठिठकती,             कुछ मुस्काने, कुछ आहें भी .....                  पर सब कुछ अब भी सुंदर है,   ...

बादल

बादल           -मिथिलेश                                                   बादलों में ज़िन्दगी पर्वती दरिया सी   बही जाती है, चलो खड़े हो लें,   दो घड़ी के हैं साये..... भरोसा क्या है खुले आसमां में बादलों का, भरी दोपहर में कब,  बरस के दिल भिगो जाएं !!! सभी को प्यार की डोरी   से बांध लो यारो, न जाने कौन कहां  बियाबां में खो जाए !!! चलो बहुत हुआ अब हाथ पकड़कर चलना, न जाने कौन कब अधर में छोड़, गुम जाये !!!                      ...

उम्र भर के घाव

उम्र भर के घाव                       -मिथिलेश                 मेरे घाव तो उम्र भर के हैं, भर गए हैं ऊपर से, निशान अभी तक बाकी हैं, ज़रा सा कुरेदोगे तो, फिर से रिसने लगेंगे, ऐसा मत करना मेरे दोस्त... सदियां बीत गईं, जब होश संभाला था, नहीं उसके भी पहले, जब बचपन भोला भाला था। तब से याद है मुझे, भाभी की वह बात, मुझ पर लगी वह तोहमत, झूठी थी, बिल्कुल ही झूठी, जो भैया से उन्होंने कही थी, मुझे पिटवाने के लिए।। पीठ पर जो घूंसा पड़ा, वह बहुत धीमा था, दिल पर पड़ा घाव,  बहुत गहरा था, उम्र भर दर्द देता रहा।। पर एक बात कह गया, सच को सच साबित करना, तब भी मुश्किल था, आज भी मुश्किल है, आगे भी लगता है, शायद  मुश्किल ही रहेगा बहुत मुश्किल ही रहेगा।।

सफर के टुकडे

सफ़र और टुकड़े                  - मिथिलेश         सफर के टुकड़े अकेली ही चली थी,  जिंदगी के सफर पर, ढेर सारे सपनों को, नाज़ुक सी पोटली में, कंधे पर लटका कर... और फिर धीरे धीरे,   राहों ने उम्र से पूछा, तुम तो आगे बढ़ गईं, मुझे तो यहीं रहना है--- कुछ निशानियां ही दे दो, और मैं टुकड़ों में बंट गई, टुकड़ों में ही बंटती रही.. बूँद बूँद रिसती रही.... और फिर आगे की कथा.. एक एक करके,  टुकड़े गिरते रहे, गिरते ही गए लगातार।। सपनो के हीरे थे जो, वे सब कांच निकले, रिश्तों के टुकड़े बहुत थे, मदिरा के प्यालों की तरह... उनमें भरी मदिरा धीरे धीरे बेस्वाद हो गई, प्यालों के टुकड़े,चटक कर, टूट टूट कर चूर हो गये .... आशा की अंजुरी से बूंद बूंद झरती रही, उम्र के अंतिम पड़ाव पर,  अब भी चल रही हूं टुकड़ों को समेटे हुए, फटी झोली में लपेटे हुए, थकी हारी,उलझती सी, पथरीली राहों पर,सुबकती सी... ये छोटे छोटे टुकड़े हैं, प्यार के, रिश्तों के, यादों के, मित्रता क...

रीती गागर

रीती गागर                - मिथिलेश                     रीती गागर सारी उमर कटी पनघट पर, रीती गागर ले लौट चली। छोटे छोटे थे हाथ मगर तारे छूने की होड़ चली .... संवेदन है मन की खुशबू, कोमलता जीवन का गुनाह, पत्ते झड़ जाते हर नग के, तुम ठूंठ तले लेना पनाह..... . कितना भागे ,न कहीं पहुंचे, सब घेरे मे हैं दौड़ रहे , पीछे वाला आगे पहुंचा , आगे वाला अब पीछे है... अड़ जाना तो आभूषण है, झुक जाना मन की कमजोरी, हर पंखुड़ी चाहे झर जाए, फूलों को छूना है गुनाह।।।             

एकलव्य

संदर्भ महाभारत का                          -मिथिलेश आम आदमी महाभारत के संदर्भ को, अपनी ज़िंदगी में आज भी जी रहा है। महाभारत में तो एक द्रोणाचार्य ने, एक एकलव्य का अंगूठा कटवाया था। अब तो अपनी अपनी जगह हर आदमी द्रोणाचार्य होता जा रहा है।   अपने अहंकार के अर्जुन को  हर तरकीब  सिखा रहा है। जब भी उसे कोई एकलव्य नजर आता है,  वह निंदा की तलवार को, मंजे शब्दों की धार देता है, और भरी सभा में एकाकी, एकलव्य का अंगूठा काट लाता है।।