कैैसा है ये मन - पागल पंछी
-मिथिलेश
कैसा है ये मन
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दिव्य है, सूरज- किरण सा ,
और पावन आत्मा सा ,
मलय सा सुरभित, सुकोमल ,
नाम कुछ उसका नहीं है ,....
प्राण की डोरी उसे है बांध बैठी ,
मुक्त मन उन्माद के क्षण जी गया है ,
प्यास पनघट पर, कहो किसकी बुझी है?,
और पथिक भी वीतरागी हो गया है ,.....
पी न पाया मधु कलश से ,फिर पिएंगे,
मृत्यु कैसे रोक लेगी, फिर जिएंगे। ..
फिर जिएंगे।।
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पागल पंछी
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पागल मन का पंछी,
ठौर ठौर भटका क्यों,
अंतहीन आस लिए ,
अधरों पर प्यास लिए,
रेत के समुन्दर में ,
मृग- जल तलाशा क्यों ?
अंत अंत पहुंचा पर
आदि आदि आ गया ......
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मंन तो आवारा
जवाब देंहटाएंपन्छी है । भटकता ही रहता है उसे कहीं भी चैन कहां कहीं भी ठौर कहां। इस भटकन से हम खुद परेशान है परेशान हैं।