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सिंधु की गहराई

सिंधु की गहराई             - मिथिलेश कुमारी सिंधु की गहराई                 सिंधु की गहराइयों को,                   नापते आए मनीषी,                 वर्ष शत-शत हार बैठे,                 पर न उत्तर खोज पाए!!!              नियति के  विश्वास की,              इस नीव को किसने हिलाया,                हार  कर  सब तर्क  से,                मन को धरा पर खींच लाया।                 और अब विश्वास की,                  पावन  अपावन इस निशा में,                 प्रबल झोंकों में पवन के,     ...

अन्तिम नमन

  अन्तिम नमन            - मिथिलेश कुमारी          बिस्सू दादा की चौथी पुण्यतिथि पर                                   

यात्रा

यात्रा          - मिथिलेश कुमारी                                      यात्रा           शाखा टूटी ,पर्ण  झड़ गए ,            जड़ें जमीं से जुड़ी हुई है।             केवल ठूंठ   बचा  है जर्जर ,             फिर भी वृक्ष अभी जिंदा है ।            ×××××××××                 चलते पांव थक गए,              और खत्म पाथेय हो गया।              फिर भी सांस चलेगी जब तक,               बंधन   नहीं    टूट    पाएंगे ।।।                  ××××××÷×××÷÷÷÷÷                ग़...

मोबाइल की उधारी

मोबाइल की उधारी (एक कहानी)                     - मिथिलेश कुमारी                सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद समय काटने के लिए मुझे काम करना जरूरी था। इसलिए मैं बहुत सी शिक्षण संस्थाओं से जुड़ गया बतौर निर्देशक और सलाहकार। मुझे बहुत से विद्यालयों में मेरा मनपसंद काम मिल गया। नए विद्यालयों को स्थापित करना, उनकी बेसिक जरूरतों के लिए आवश्यक सामग्री जुटाना , प्राचार्य और शिक्षकों की नियुक्ति में इंटरव्यू कमेटी में मुखिया बनना , यह सब अब मेरी दिनचर्या में शामिल थे । मेरा पूरा समय अब शिक्षा जगत को समर्पित था। और यही मेरा अपना सुख संतोष था । ×××××× इसी दौरान पूना के पास एक इंटरव्यू में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए मैं तीन-चार दिन के लिए गया ।दूसरे दिन जो उम्मीदवार आये थे , उनमें एक दुबली पतली सांवली लड़की भी थी जो गणित विषय की शिक्षिका बनने के लिए आई थी। दक्षिण भारतीय उस लड़की ने इतनी कुशलता से प्रश्नों के उत्तर दिए कि हमें वह ओवर क्वालीफाइड लगी। एकमत से वह चुन ली गई। और ...

कामायनी से

कामायनी से         - मिथिलेश कुमारी                        कामायनी से                सुखों का संग्रह जगत को,                  दे रहा परिताप ।                प्रकृति का वरदान भी है,                क्यों बना अभिशाप   ?                       सभी पाकर कुछ ना देना ,                     क्या नहीं है पाप ?                प्रभु नहीं दाता दुखों का,                      जनक है हम आप ।                 कर्म के आधीन जग है,                  ...

फूलों की चाह

फूल की चाह    -मिथिलेश कुमारी                    

Anbole Shabd

  अनबोले शब्द            -मिथिलेश कुमारी                                         तेरे अनबोले शब्दों ने,              क्या-क्या कथा कही,              क्या वसंत जाने पतझड़ ने               क्या-क्या व्यथा सही!            भूल हुई शब्दों में कैद किया,            पीड़ा का पंछी बेताब,                क्या जाने उड़ने को काफी था,              मन का मटमैला आकाश !!               ××××××××××××

Shabdon Ki Vivashata

  शब्दों की विवशता               -मिथिलेश  कुमारी             शब्द तो आये अधर  पर  ,             किंतु स्वर कब निकल पाए              है  अकिंचन  स्वयं ही जो,             क्या कहा कैसे लुटाये ?      मैं रही पथ की भिखारिन  ,   द्वार पर कैसे बुलाती ?   शूल  थे बोये भला  ,   कैसे सुमन की सेज पाते?              किंतु ओ परमात्मा ,              इतना मुझे वरदान दे दे,              शूल पथ के बीन  पाऊ,              हाथ में अधिकार दे दे  ।।

Shabdon ki Dhar

   शब्दों की धार                  -मिथिलेश खरे        शब्दों की धारों से--        भीग गया बोझिल मन,          स्वप्नो  की डाली से ,         टूट गया कोमल  तन।                जीवन  की   अमराई ,                गंधवाह  बहक  गया,                खुशियों का सुमन  यहां ,               क्षणभर को महक  गया।।          पल भर का साथ कभी,               दर्द दाह देता है ,          एक शब्द  नेह भरा ,          कलुष  मिटा देता  है।।।          

Phoolon Se

फूलों से          - मिथिलेश कुमारी                              हम फिर खिलेंगे  झर गए तो क्या हुआ ? हम फिर खिलेंगे... मृत्यु कैसे छीन लेगी ? फिर जिएंगे ,फिर जिएंगे .... धूल में मिलना नियति सब की यही है , धूल में विश्राम करके फिर उठेंगे ,फिर उठेंगे ... दिन सदा ढलता रहा है , रात भी लंबी नहीं है, फिर सुबह होगी मुसाफिर चल पड़ेंगे चल पड़ेंगे .... सुबह छुपती सांझ में है , रात जुड़ती प्रात से है, चक्र चलता ही रहेगा क्यों रुकेंगे ?फिर मिलेंगे ..... घूम फिर हम खोज लेंगे डोर टूटेगी नहीं तुम छोड़ना मत फिर जुड़ेंगे ,फिर मिलेंगे.... जिंदगी के बाद भी जीते रहेंगे मृत्यु कैसे रोक लेगी ? फिर मिलेंगे ,फिर मिलेंगे... .