सिंधु की गहराई
- मिथिलेश कुमारी
सिंधु की गहराई
सिंधु की गहराइयों को,
नापते आए मनीषी,
वर्ष शत-शत हार बैठे,
पर न उत्तर खोज पाए!!!
नियति के विश्वास की,
इस नीव को किसने हिलाया,
हार कर सब तर्क से,
मन को धरा पर खींच लाया।
और अब विश्वास की,
पावन अपावन इस निशा में,
प्रबल झोंकों में पवन के,
दीप में कैसे जलाऊं ?
जो निरंतर जल रहा है,
उसे मैं कैसे बुझाऊ ?
घाव तो गहरे बहुत हैं,
उन्हें अब कैसे छुपाऊं ?
नाव यह कैसे लगेगी,
दाग चूनर में लगा हो,
देह पर कैसे सजेगी ?
दाग चूनर में लगा हो,
देह पर कैसे सजेगी ?
बहुत सुन्दर
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