कामायनी से
- मिथिलेश कुमारी
कामायनी से
सुखों का संग्रह जगत को,
दे रहा परिताप ।
प्रकृति का वरदान भी है,
क्यों बना अभिशाप ?
सभी पाकर कुछ ना देना ,
क्या नहीं है पाप ?
प्रभु नहीं दाता दुखों का,
जनक है हम आप ।
कर्म के आधीन जग है,
फल हमारे हाथ,
बीज हो विष वृक्ष का
कैसे फलेगा दाख ?
पुण्य फल चाहे तथा,
करते रहे हम पाप ।
क्षुद्र मन कैसे सकेगा,
प्रभु दया को माप।।
विगत तो देखा नहीं,
आगत अभी अनजान है,
बीच में हम क्यों खड़े,
भ्रम में पड़ा इंसान है ?
जन्म से चलती कथा,
जो मृत्यु पर आकर थमी,
जीव चलता ही रहेगा,
वह कभी रुकता नहीं ।।
××××÷÷××××××
सभी पाकर कुछ ना देना ,
क्या नहीं है पाप ?
प्रभु नहीं दाता दुखों का,
जनक है हम आप ।
कर्म के आधीन जग है,
फल हमारे हाथ,
बीज हो विष वृक्ष का
कैसे फलेगा दाख ?
पुण्य फल चाहे तथा,
करते रहे हम पाप ।
क्षुद्र मन कैसे सकेगा,
प्रभु दया को माप।।
विगत तो देखा नहीं,
आगत अभी अनजान है,
बीच में हम क्यों खड़े,
भ्रम में पड़ा इंसान है ?
जन्म से चलती कथा,
जो मृत्यु पर आकर थमी,
जीव चलता ही रहेगा,
वह कभी रुकता नहीं ।।
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