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मार्च, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सच्चाई

      सच्चाई             -मिथिलेश                   सच्चाई सच्चाई से कबूले गए , उन सहमे सहमे, शुद्ध सहज शब्दों को, उस इबादत की इमारत में, बदलते हुए मैंने देखा है । जो गुरु ग्रंथ साहब में, कई शताब्दियों पहिले,  नानक देव जी ने, पन्नों पे उतारी थी । जो अभी भी किसी, झूठ की इमारत पर, भारी भरकम,  गुंबद की तरह, भारी है।।  वह सच्चाई

परछाईयां

  परछाइयां              - मिथिलेश उम्र की परछाईयां लंबी हुई हैं,   उम्र की परछाईयांं लम्बी हुई हैं, और कांधे रखी कांवर, भीग कर भारी हुईं  है, और कांधे रखी कांवर, भीग कर भारी हुई है ।१। और कब तक ? और कब तक ? थक गए हैं पांव मेरे, दूर कब तक ? मंजिलें दिखती नहीं हैं, मंजिलें दिखती नहीं है।२। बस चला चल,  राह पर चुपचाप धीरे, राह पर चुपचाप धीरे,  और इस अविराम गति से, इस जगत में हाय  तेरी नियति है यह, आह, तेरी नियति है यह।३। उम्र की परछाइयां लंबी हुई हैं, उम्र की परछाइयां लंबी हुई है।।।                    

दिवास्वप्न

        दिवास्वप्न                - मिथिलेश खरे               दिवास्वप्न   रात आधी ,चांद ने जब , रेत की उस सेज पर बिखरा दिया था मोतियों की धूल को , दूधिया रंग में भिगो कर... और सागर की उफनती, लहर को करके इशारा , शांत रहने को कहा था , रोक कर सैलाब अपना, मौन होने को कहा था..... हवा हौले बह रही थी वृक्ष के कोमल बदन को प्यार से सहला रही थी और तारे आसमां में मूकदर्शक बन खड़े थे..... आसमा की गोद में जब चांद सांसे ले रहा था तभी मेरी धड़कनों का ओढकर अनमोल आंचल गोद में तुम सो गए थे ... और मेरे हाथ दोनों घेर वक्षस्थल तुम्हारा, जरा धीरे से लिपट कर गीत कोई सुन रहे थे धुन अलौकिक बुन रहे थे .... स्वप्न था या सत्य कहना कठिन होगा कल्पना का बहुत सुंदर और नाजुक वहम होगा और नाजुक भरम होगा..               

एक नाजुक वहम

एक नाज़ुक वहम                     -मिथिलेश      एक नाज़ुक वहम ------------------                     रात आधी, चांद ने फिर,  रेत की उस सेज पर, बिखरा दिया था, मोतियों की धूल को।१। और सागर की उफनती, बावली होकर उछलती, लहर को करके इशारा, शांत रहने को कहा था ।२। हवा हौले बह रही थी, वृक्ष के कोमल बदन को, प्यार से सहला रही थी और तारे आसमान में, मूक दर्शक बन खड़े थे ।३। आसमान की गोद में जब,  चांद सांसें ले रहा था, तभी मेरी धड़कनों का, ओढ़कर अनमोल आंचल गोद में तुम सो गए थे.... ....।4। और मेरे हाथ दोनों,   वक्ष पर तेरे रखे थे, अधर माथे से लगे थे, अनकहा कुछ कह रहे थे, जिन्दगी की मधुर धुन में    गीत कोई सुन रहे थे ।५। स्वप्न था या सत्य, कहना कठिन होगा, कल्पना का बहुत सुंदर, और नाज़ुक वहम होगा और नाजुक भरम होगा ।।६।।      

वे गर्मी के दिन

                  वे गर्मी के दिन   वे गर्मी के दिन मुझे बहुत याद आते हैं। रूह अफजा की बॉटल कल डी-मार्ट से लेकर आई तो ढेर सी बचपन की यादें आ कर  मुझे  गुदगुदाने लगी। गर्मी की छुट्टियों के दिनो में जबलपुर से बड़ी भाभी और उनके बच्चे हर साल छुट्टी बिताने घर पर आ जाते थे। गांव के घर में सब बच्चों  में  मै ही बड़ी थी भतीजे से  सिर्फ 4 साल बड़ी और भाई बहनों में सबसे छोटी। भरी दोपहर में जब मा भाभियाँ जमीन में दरी बिछाकर सो जाते तो मैं सूनी दोपहर मे छोटे भैया के कमरे में चुपके से घुस जाती उनकी अलमारी खोलती बीच के खाने में लाल रंग की सुगंधित तेल की शीशी होती थी शायद कैंथरादीन जैसा कुछ नाम था मैं थोड़ा सा तेल निकालकर अपने आधे कटे बालों पर लगा लेती, रेक्सोना साबुन हरे रंग का होता था उसे हाथ पर लगाकर देर तक फेन निकालती रहती।  फिर रसोई घर में जाकर रूह अफजा की बॉटल  से शरबत निकालकर उसमें ढेर सी शक्कर डालकर धीरे-धीरे  दालान तक जाती और उसमें घड़े का ठंडा पानी डालकर उंगली से मिलाकर शर्बत बनाकर पी जाती। ए...

मेरा शापित मन

    मेरा शापित मन                      -मिथिलेश                 कितना शापित मन मेरा, क्षार क्षार हो गया कि वह मन, जिसको मैने प्यार दिया था, तार तार हो गया वसन वह,    जिसको मैने पहन लिया था। कितना शापित मन मेरा। खंड खंड हो गई मूर्ति वह, जिसको मैने नमन किया था, टूट टूट गिर गई डाल, जिसका मेंने आधार लिया था। कितना शापित मन मेरा। ताक लिया जिसको जी भर, वह फूल गिर गया धरती पर, और क्षितिज से दूर हो गए,  जिनको खोजा धरती पर था। कितना शापित मन मेरा। शूल उगा मत्सर का भी, वह मंजुल कुसुम कलेवर पर था, जिसकी कोमलता को पाकर, अनुप्राणित मेरा  अंतर था। कितना शापित तन मन मेरा। कितना शापित तन मन मेरा।।

सम्बंधों की परिभाषाएं

    सम्बंधों की परिभाषाएं                                   -मिथिलेश          संबंधों की परिभाषाए ख्वाब में हो ख्याल में हो, और पूजा प्रार्थना में, सुबह की उजली किरण में, और ढलती शाम में हो.... नींद केआगोश  में भी रात के सुनसान में भी, कौन सा संबंध है, कैसी डोर है यह? अमर्यादित ,अपरिभाषित, किन्तु पावन  और, लगती है अलौकिक, ईश के वरदान जैसी, अखंडित अस्पृश्य जैसे, दीप की स्वर्णिम शिखा सी.....

पता नहीं पता नहीं

  पता नहीं - पता नहीं                       -मिथिलेश                पता नही - पता नही जिंदगी की राह में,  कि कौन, कब, कहां मिले, कि क्यों करीब आ गये, पता नहीं , पता नहीं ....... चलेंगे साथ कब तलक,  कि कौन कब कहां रुके, कि कौन साथ छोड दे,  पता नहीं , पता नहीं ......  यह डोरियों का खेल है,  या कुछ घड़ी का मेल है,  कहां शुरू कहां खतम,  पता नहीं , पता नहीं..... यकीन है मुझे ,कभी मिले थे हम किसी जगह, जो लेन- देन शेष था, चुका नही,चुका नही......  ये बीच की सड़क हमें,  चला रही सम्हल सम्हल, कहां है, आदि अंत फिर, पता नहीं , पता नहीं .....