सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

वे गर्मी के दिन

                 
वे गर्मी के दिन

 वे गर्मी के दिन मुझे बहुत याद आते हैं। रूह अफजा की बॉटल कल डी-मार्ट से लेकर आई तो ढेर सी बचपन की यादें आ कर  मुझे  गुदगुदाने लगी। गर्मी की छुट्टियों के दिनो में जबलपुर से बड़ी भाभी और उनके बच्चे हर साल छुट्टी बिताने घर पर आ जाते थे।
गांव के घर में सब बच्चों  में  मै ही बड़ी थी भतीजे से  सिर्फ 4 साल बड़ी और भाई बहनों में सबसे छोटी। भरी दोपहर में जब मा भाभियाँ जमीन में दरी बिछाकर सो जाते तो मैं सूनी दोपहर मे छोटे भैया के कमरे में चुपके से घुस जाती उनकी अलमारी खोलती बीच के खाने में लाल रंग की सुगंधित तेल की शीशी होती थी शायद कैंथरादीन जैसा कुछ नाम था मैं थोड़ा सा तेल निकालकर अपने आधे कटे बालों पर लगा लेती, रेक्सोना साबुन हरे रंग का होता था उसे हाथ पर लगाकर देर तक फेन निकालती रहती।
 फिर रसोई घर में जाकर रूह अफजा की बॉटल  से शरबत निकालकर उसमें ढेर सी शक्कर डालकर धीरे-धीरे  दालान तक जाती और उसमें घड़े का ठंडा पानी डालकर उंगली से मिलाकर शर्बत बनाकर पी जाती। एक सामान वाला कमरा था उसमें प्राय अंधेरा रहता और खाने-पीने का सामान साल भर के लिए रखा होता था एक टीन में रखी इमली और पीतल के घड़े में रखा गुड यह दोनों मेरी पसंद है, दिन में चुपके से दो-तीन बार जाकर धीरे से गुड़ और इमली खा लेती थी। साबुन का पानी कटोरी में घोलकर कांच की नली से गुब्बारे बनाना मुझे बहुत अच्छा लगता है। उसके इंद्रधनुषी रंगों को इतनी शिद्दत से देखती रहती थी मैं जब तक वह हवा में ऊपर उठकर गायब न हो जाते। जिंदगी में भी ऐसे ही देखती रही रंगीन गुब्बारों को जो कभी हाथ में नहीं आए बस देखने की चीज होते हैं ना गुब्बारे और हां आज 77 साल की उम्र में भी मुझे गुब्बारे उड़ाना बहुत पसंद है।आजकल बच्चे उसे बबलगम के नाम से जानते हैं और हां एक बात तो भूल ही गई, भाई साहब की अलमारी का नीचे का खाना बड़ा आकर्षक  था।  उसमें छोटे खांचे वाली एक छोटी संदूकची थी  उसमें छोटी छोटी कांच की शीशियों में कई तरह के इत्र रखे होते थे बस  दोपहर में अलमारी खोलकर केवड़े का इत्र निकाल कर रूई के फोहे में लगा कर कान में रख लेती थी ।
एक दिन दीदी ने धमकाया की वे भाई साहब को बता देंगी कि तुम इत्र की शीशी खोलती हो।    उस दिन इत्र ज़्यादा गिर कर मेरी फ्रॉक पर  लग गया था। तब मै रोने लगी  और शिकायत होने से बच गई।
 हमारे घर में पुरानी किताबों के बक्से थे मुझे मज़ा आता था सो ऐसी मैगजीन निकालकर छत पर पढ़ने भाग जाती थी जो हमारे लिए निषिद्ध थी जैसे जासूसी पुस्तक, मनोहर कहानियां,  घर में अखबार आते थे जैसे   नई दुनिया,  नवभारत,  सप्ताहिक  जैसे धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली आदि होते थे मासिक में नवनीत आता था। इनमें नवनिर्मित  कविताएं होती थी नीरज महादेवी वर्मा, बच्चन  आदि की, उनके साथ चित्र भी होते थे उनको फाड़ कर मैं अपनी पुस्तकों कापियों पे कवर चढ़ा लेती थी। और बस देखती रहती थी। जाने कितने दशक बीत गए, गर्मी के उन दिनों की बाते बस रूह अफ्जा की उस बंद बॉटल ने सब ताज़ा कर दिया।









टिप्पणियाँ

  1. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सूची और ब्लोग कैसे खोले

  सूची और ब्लोग कैसे खोले              - मिथिलेश खरे How to open blog......click blue address....then 3 lines on right,  then,संगृहीत करे।monthwise list will open...then click the month,you  will get poems,stories of that month...so plese see and give your comments..thanks Thanks and comment. ब्लाग कैसे खोले: mithileshkhare33.blogspot.com ब्राउज़र मे डालें, बलौग खुल जाएगा 7  8 कविताएं। और पढें पर क्लिक करें कविता वीडियो खुल जाएगा। जब सब देख ले अधिक पढें पर व्लिक करें 7  8 कविताएं और खुल जाएंगी। इसी प्रकार अन्त तक खोल सकते हैं।

सपना बचपन का

सपना बचपन का             -मिथिलेश सपना बचपन का  एक सपना मुझे बचपन से बार-बार आता था ।जबलपुर के घर का पहला कमरा है ।उसमें बीच में कोई सफेद चादर ओढ़ कर सोया हुआ है ।चादर पूरी इस तरह से  ओढ रखी है कि सोने वाले का मुंह नहीं दिख रहा। घर में ढेर सी औरतों का जमावड़ा है । मेरी मां बीच में बैठी हुई है । फिर कुछ लोग आए चादर ओढ़े उस आदमी को वैसे ही कंधे पर उठाकर ले जाने लगे । मां जोर से    चिल्लाने  और  रोने लगी और भागने लगती है। मैं मां की साड़ी का पल्ला पकड़ के खड़ी हो जाती हूं। भागती हुई मां को औरतों  ने बहुत जोर से पकड़ रखा है ।चारों ओर  से जकड़  रखा है । मै औरतों की इस भीड़ में घुस कर अपने छोटे छोटे हाथों से उन औरतों को मार रही हूं । मुझे  उन पर बहुत गुस्सा आ रहा है । मैं  सोच रही हूँ कि  वे सब मिलकर मेरी मां को बहुत तंग कर रही हैं। और मैं मां को बचा रही हूं । यह सपना मुझे करीब 12 वर्ष की उम्र तक कई बार आता रहा । बड़े होने पर मुझे समझ में आया कि यह सब क्या है। पिताजी की मौत अचानक ह्रदय गति रुक जाने से हो...

मै जीती रहूंगी

  मैं जीती रहूंगी           *मिथिलेश खरे          मैं जीती रहूंगी जिंदगी के पहले ,मर जाना नहीं, बल्कि जिंदगी के बाद भी जीना चाहती हूँ मैं , जीती रहूँगी यूं ही पता है मुझे- हां ,पता है मुझे ..... पता है मुझे पता है मुझे जब कभी मेरी बेटी कोई पुरानी नोटबुक के अनदेखे पन्नों को पलटेगी, तब बार-बार मेरे शब्द उसके दिल में उतर जायेंगे, उसके दिल में उतर जाएंगे पहले जो अनकहा रह गया था , वह सब फिर से कह जाएंगे ! पता है मुझे, पता है मुझे --- पता है मुझे पता है मुझे मेरी धीमी सी आवाज कभी प्यार की ,कभी डांट की कभी शिकायत की ,कभी उलाहना की अकेले में उसे बार-बार सुनाई देगी उसकी गहरी आंखों के कोरों को अनायास ही नम करती रहेगी ! य...