दिवास्वप्न
- मिथिलेश खरे
- मिथिलेश खरे
दिवास्वप्न
रात आधी ,चांद ने जब ,रेत की उस सेज पर
बिखरा दिया था
मोतियों की धूल को ,
दूधिया रंग में भिगो कर...
और सागर की उफनती,
लहर को करके इशारा ,
शांत रहने को कहा था ,
रोक कर सैलाब अपना,
मौन होने को कहा था.....
हवा हौले बह रही थी
वृक्ष के कोमल बदन को
प्यार से सहला रही थी
और तारे आसमां में
मूकदर्शक बन खड़े थे.....
आसमा की गोद में जब
चांद सांसे ले रहा था
तभी मेरी धड़कनों का
ओढकर अनमोल आंचल
गोद में तुम सो गए थे ...
और मेरे हाथ दोनों
घेर वक्षस्थल तुम्हारा,
जरा धीरे से लिपट कर
गीत कोई सुन रहे थे
धुन अलौकिक बुन रहे थे ....
स्वप्न था या सत्य
कहना कठिन होगा
कल्पना का बहुत सुंदर
और नाजुक वहम होगा
और नाजुक भरम होगा..
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