सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

दिसंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

उम्र भर के घाव

उम्र भर के घाव           -मिथिलेश             मेरे घाव तो, उम्र भर के हैं, भर गए हैं ऊपर से जरूर निशान अभी तक बाकी हैं, ज़रा सा कुरेदोगे तो, फिर से रिसने लगेंगे, ऐसा मत करना मेरे दोस्त... सदियां बीत गईं, जब होश संभाला था, नहीं उसके भी पहले, जब बचपन भोला भाला था, तब से याद है मुझे, भाभी की वह बात...... मुझे कभी नहीं भूली, मुझ पर लगी वह तोहमत, जो झूठी थी, बिल्कुल ही झूठी, मनगढंत कहानी सी जो मुझे पिटवाने के लिए  भैया से उन्होंने कही थी!!! पीठ पर जो घूंसा पड़ा, वह बहुत धीमा था, दिल पर पड़ा घाव,  शायद बहुत गहरा था, कभी भी भर न सका  उम्र भर दर्द देता रहा !!! पर एक बात कह गया, सच को सच साबित करना, तब भी मुश्किल था, आज भी मुश्किल है, आगे भी लगता है,  शायद मुश्किल ही रहेगा।।।। बहुत मुश्किल ही रहेग।। मुश्किल ही रहेगा ...

संदर्भ महाभारत का -एकलव्य

  संदर्भ महाभारत का..... एकलव्य                                          एकलव्य आम आदमी अभी तक महाभारत के संदर्भ को, अपनी ज़िंदगी में आज भी जी रहा है........ .महाभारत की कथा में तो, एक द्रोणाचार्य ने, एक बेचारे एकलव्य का अंगूठा कटवाया था!!! अब तो अपनी अपनी जगह हर आम आदमी जी भी बदला लेने की धुन में द्रोणाचार्य होता जा रहा है!!!   अपने अहंकार के अर्जुन को , हर तरकीब  सिखा रहा है। रोज रोज प्रशंसा की घुटी से नया नया पोषण दे रहा है .... जब भी उसे कोई एकलव्य नजर आता है, ...

उमर की नाव

 उमर की नाव   - मिथिलेश कुमारी          उमर की नांव -मिथिलेश कुमारी ----------------- अंकुर का संग पीछे छूट गया , बढ चली उमर की बेल, खुल गए निद्रा के द्वार, सपना का जाल मधुर टूट गया ------ बढ चली सागर में नाव बचपन को यौवन फिर लूट गया ... चलना है अभिराम यहां मत पंख समेटो , क्षणभर का विश्राम कहां मत पंख समेटो..... लहरों के सघन झकोरों से , गर डोल रही हिम्मत नौका पतवार नाम की याद रखो मत जाने दो स्वर्णिम मौका मत जाने दो स्वर्णिम मौका ×××××××××××××××××××××××××

प्रयाण की ओर

 प्रयाण की ओर          मिथिलेश             प्रयाण की ओर -मिथिलेश कुमारी ----------------------- आदर्शों के और वृहद् जाल में , कब तक बांधू पंख तुम्हारे? मन जब मन से बातें करता, शब्द बैठते कान लगाए, मौन प्रतीक्षा जिस आगत की। शायद वह आए ना आए, शायद वह आए ना आए!!! बाट जोहती मिटती आशा , जिसने आसमान थामा है , लो प्रयाण की घड़ी आ गई! किसको कहां कहां जाना है ? किसको कहां कहां जाना है ×××××××××××××

तुम बता दो

  तुम बता दो        - मिथिलेश कुमारी                       तुम बता दो  प्राण का पंछी, बिंधा क्यों पिंजरे में, कौन जाने , द्वार इसका,  कब ,कहां, कैसे खुलेगा ? तुम बता दो-  तुम बता दो ...... पुष्प पर तो,  शूल का पहरा लगा है , आत्मा को त्राण भी तो , कब ,कहां, कैसे मिलेगा ? तुम बता दो - तुम बता दो ..... चुक गया है तेल , बाती भी पुरानी हो गई है, दिए की लौ थरथराती , आंधियों से डर गई है , तुम बचा लो -  तुम बचा लो ..... क्या पता ,कितनी कठिन है, राह का कब अंत होगा? ज्योति जीवन की सिमटकर, नभ प्रभा में विलय होगी,  कब, बता दो -  तुम बता दो - ××××××××××

समर्पण

  समर्पण     -   मिथिलेश कुमारी           समर्पण -मिथिलेश कुमारी                     मन भी अर्पित ,तन भी अर्पित, जीवन रूपी धन भी तेरा, फिर भी तेरा नेह न पाया, इसमें कहां दोष था मेरा? मन भी अर्पित -तन भी अर्पित ........ मन में थी वह उमस, कि काली रात कभी ,बन जाए सवेरा, हुआ सवेरा, भाग्य न जागा, और न भागा कहीं अंधेरा... मन भी अर्पित- तन भी अर्पित ....... इतना है अपराध कि मैंने, सबको सुख देना चाहा था, केवल मुझको पा लेने दो, ऐसा मैने कब चाहा था? मन भी अर्पित- तन भी अर्पित.... प्यासी मैं पनघट तक भटकी, पनघट से तुमने लौटाया, सुख की मृगतृष्णा पाने को, मैने मन को था भरमाया .... मन भी अर्पित-तन भी अर्पित .... उर में ऐसी व्यथा कि जैसे बिजली काले नभ में खोई, मेरा दुख जिसको छू लेता जिसको, ऐसा जग में रहा न कोई.. .मन भी अर्पित- तन भी अर्पित ..... सूनी राह, थका हारा मन, और न दिखता दूर किनारा, बोझिल मन चरणों नत है, क्या तुम दोगे नहीं सहारा? मन भी ...