समर्पण
- मिथिलेश कुमारी
समर्पण
-मिथिलेश कुमारी
मन भी अर्पित ,तन भी अर्पित,
जीवन रूपी धन भी तेरा,
फिर भी तेरा नेह न पाया,
इसमें कहां दोष था मेरा?
मन भी अर्पित -तन भी अर्पित ........
मन में थी वह उमस,
कि काली रात कभी ,बन जाए सवेरा,
हुआ सवेरा, भाग्य न जागा,
और न भागा कहीं अंधेरा...
मन भी अर्पित- तन भी अर्पित .......
इतना है अपराध कि मैंने,
सबको सुख देना चाहा था,
केवल मुझको पा लेने दो,
ऐसा मैने कब चाहा था?
मन भी अर्पित- तन भी अर्पित....
प्यासी मैं पनघट तक भटकी,
पनघट से तुमने लौटाया,
सुख की मृगतृष्णा पाने को,
मैने मन को था भरमाया ....
मन भी अर्पित-तन भी अर्पित ....
उर में ऐसी व्यथा कि जैसे
बिजली काले नभ में खोई,
मेरा दुख जिसको छू लेता जिसको,
ऐसा जग में रहा न कोई..
.मन भी अर्पित- तन भी अर्पित .....
सूनी राह, थका हारा मन,
और न दिखता दूर किनारा,
बोझिल मन चरणों नत है,
क्या तुम दोगे नहीं सहारा?
मन भी अर्पित -तन भी अर्पित....
स्वाभिमान को खंड खंड कर,
तेरे घर का दीप जलाया,
मन मेरा वीरान हो गया,
लौट कभी मधुमास न आया...
मन भी अर्पित- तन भी अर्पित..
जीवन रूपी धन भी अर्पित ..
मन भी अर्पित- तन भी अर्पित..
जीवन रूपी धन भी अर्पित ..
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