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और वह घर पुकारता रहा

 और वह घर पुकारता रहा

              -मिथिलेश कुमारी

    


 

 और वह घर पुकारता रहा !

 याद आता रहा रातभर, मुझे भी, वह पुराना घर  मेरा! मेरा नही ,हमारा। उसके आंगन में भाई, बहिनो के साथ लुका छिपी खेले, बस्ता पीठ पर टांगकर स्कूल गए, लालटेन  की रोशनी में, जमीन  पर बैठ कर,  नीली स्याही   की दावात में कलाम डुबोकर सबक किया। घर की रसोई से उठी ताजी बाटी की सुगंध और लाइन से पीडे पर बैठाकर खाना,  किसी फाइव स्टार  खाने  से कम नहीं  था।  कौन पहले आम खतम करता है..के चक्कर में बिना पूरा चूसे ही उठ जाना... कितना  सुकून देता  था, वह जीत जाना!

            हम सब एक साथ उमर की सीढ़ी  पार करते गए, हाफ पेंट से फुल पेंट पर आ गए, बहिनो का बाहर खेलना बंद हो गया ।पिताजी की चिंता बढ़ती गई, मां.. दादी की हिदायतें भी।

            फिर हाई स्कूल के दिनो का आखिरी दौर, जब नोट बुक में पीछे के पन्नो पर शायरी भी लिख लेते  थे।  नोट बुक घर में कोई बड़ा  नहीं  देखता था। एक कमरा हमारा था, भाइयों का, पढ़ने के लिए। एक दिन चाचाजी आए उसी कमरे में। मेरी नोट बुक उलट पलट कर देखने लगे, कि देखें क्या पढ़ते हो ।.और मैं पकड़ा  गया।. वे पिताजी से बोले-देखो ये वीरेन अब बिगड रहा है, शायरी लिखने लगा है नोट बुक में । अब इसको अगले साल बाहर साइंस ग्रुप में डाल दो ।वो घर, वो कमरा अभी भी याद करता होगा, मेरे अंतर में  पनपती उस  कोमल खूबसूरत भावना के अंकुर को ,जिसे कोई नाम देना गुनाह  था ।

        वह घर गवाह है...उन सुंदर दिनो का...जब मेरी बारात में ,मुझे  दूल्हे की ड्रेस में सजाकर, जूलस में औरतों की   गीत गाती  भीड़  मुझे बाहर छोडने आयी थी।..वे मजाक, हंसी के लहजे, भाभियों का मुस्काकर इशारे करना, और मन में एक अंजान लड़की की तस्वीर....

         यह वही घर था ,जिसके दरवाजे पर मां ने मेरी नई नवेली किशोरी, लजीली, सिमटी, सिकुडी दुल्हन की स्वागत आरती उतारकरकर किया था ।फिर वो कमरा मुझे अभी भी याद है  ।उस रात ,बहुत प्रतीक्षा के बाद मुझे कहा गया कि अब  इस  कमरे में जाना है।. जिंदगी के मधुर, लाज और संकोच से भरे वे प्रथम मिलन के पल, अभी भी  जुदा नहीं होते,  दिमाग के स्टोर हाउस से।

                 उसी घर में परिवार बढ़ा । उत्सव हुए, शादियां हुई..त्योहारों पर घर जाना जरुरी था, परिवार के साथ। सब के अपने अपने परिवार, समस्याएं, होते गए ।पिताजी -मां सबको जोड़े रहे ।उनसे मिलने भाई,बहने हर साल आते रहे  ।फिर समय बदला...पिताजी सेवानिवृत्त हुए, मां में अब तक उत्साह नहीं रहा । बहू लोगो की बात मानी  जाने लगी l। जमाना  बदला,घर के  शासन की बागडोर  भी ।

         एक दिन ऐसा भी आया..पिताजी धीरे-धीरे कमजोर होते गए  ।।चलना फिरना बंद हो गया और घर के मुखिया, घर के जन्मदाता उसी घर के एक कमरे में एक पलंग तक सीमित   रह गए ।जिस घर को बनाया था, उसी को अलविदा कह  गए ।पिताजी भी और मां भी।

            फिर भी घर खड़ा रहा ।हमारे पूर्वजों की निशानी थी  ।हम अपने बेटों, बहुओं, नाती पोतों को देखने ले जाते थे.। देखो ,ये अपना घर है  ।हमारे बचपन, जवानी के दिनों के साक्षी।  पड़ोस, मोहल्ले के बचपन के साथी,       जवान हुए, बड़े हुए और बहुत से दुनिया छोड़ गए। सिर्फ  कहानियां रह गई उनकी, उनके परिवार वालों के पास। 

                मेरा मन था एक बार फिर जाकर देख आऊं, उन बचपन की गलियों में घूम आऊं ।हमारे प्रथम मिलन वाले कमरे से पूछ आऊं कि याद है वह घटना. ?.अब तो मैं भी आधा बचा हूं   ।साथी छोड़ गई... .! पर जा नहीं सका ... कुछ ऐसे कारन थे, कुछ मन में जिद को दबाने की, समझौता करने की आदत  है।. कुल मिलाकर मन की बात मन में ही दफान हो गई और आज वह घर   बिक गया . ।घर में रहने वाला छोटे भाई का परिवार भी घर को अंतिम प्रणाम कर दिल्ली चला गया ।.रह गया तो सिर्फ  यादें...और यादों की   शाखाएं,  जो कभी इसी तरह बढ़ती रहती हैं ।.आज हमारे घर की फोटो देख कर एक साथ खड़े हो कर सामने आ गए सब द्रश्य...मेरा घर, फ घर...जो कभी हमारा था..आज नहीं है...हमारी जिंदगी के साथ भी कभी यही होगा... जोअब  हमारा था,सदा  हमारा  नहीं  रहेगा ।...पर  टूटती  नहीं यादों की डोर,खिचती जायेगी,यों  ही ,न जाने  कब तक !!!

टिप्पणियाँ

  1. अपने अतीत का अत्यंत सजीव ए्वं मार्मिक चित्रण इसके माध्यम से किया गयाहै।जो निश्चित ही हर किसी जन के जीवन का हिस्सा रहा होगा।

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  2. हां सही है । पुराने घर की याद आते ही मन की कोर आंखों की कोरें बन जाती हैं । घर के कोने कोने में घूमने लगती हैं । दीवार से सटी काली आल्मारी - किताब कापियों से भरी हुई ,बीच बीच में शेरों-शायरी , ग़ज़ल कविताओं की पंक्तियां , बचपन से सहेजी गई कोई मामूली सी पर अनमोल गिफ्ट , और न जाने क्या क्या । दीवारों से , पर्दों के के पीछे से झांकती कही- अनकही ढेरों कहानियों के गलियारों से निकलना ...... बेहद मुश्किल । चलो , गलबहियां
    डाले ,चले उन गलियों में ।

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    1. हां,अपना वो जबलपुर वाला घर,वो BA की परीक्षा के दिन,वो छत,अम्मा के गरम parathe,वो घड़ी का अलार्म,वो तुम्हारा पापा की शर्ट की जेब से चुपचाप लेटर ले कर आना।अब नही होगा वह रुम,नये घर में,,,,सिर्फ यादें बच गई ।

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    2. येस रानी,कारवा गुजर गया ,गुबार अब तक बाकी है ।

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  3. तुमने मुझे सन् १९६० / ६२ में पंहुचा दिया । पापाजी के जेब से " ख़त " निकालने लगी बात " राज़दार " सिर्फ और सिर्फ तुम ही तो हो। हां , अम्मा / पापा जानते थे - वहां उम्र और रिश्तों का लिहाज़ था। अम्मा कभी कभी थोड़ा फ़्री हो जाती थीं। कुछ वर्ष पूर्व ❤️पर पत्थर रखकर उन स्मृतियों को जल में प्रवाहित कर दिया - अश्रु पूरित श्रद्धांजलि सहित ❤️❤️

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    उत्तर
    1. हां रानी,उन letters को,यादों को पानी की बाल्टी मे डुबाना,कोई सहज नही रहा होगा।अब सिर्फ मन के बन्द कमरे मे कैद है।

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  4. पुराना घर , अपना घर .... अपना ना रहा , फिर भी अपना है । अब नई पीढ़ी है , घर का कलेवर भी नया है , फिर भी सब अपना है , यादों में बसा है और मरते दम तक वैसा ही रहेगा .......

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