बडी बुआजी
-मिथिलेश
बड़ी बुआ जी
बड़ी बुआ को हम लोगों से बहुत प्यार था ।हमारे साथ ही रहती थी। 18 वर्ष की थी जब फूफा जी नहीं रहे थे। उनकी ससुराल में प्लेग की बीमारी से उनकी मृत्यु हुई थी। फूफाजी के स्वर्गवास के बाद उनकी सास ने कहना शुरू कर दिया था - कि यह बहू कुलक्षणी है , मेरे बेटे को खा गई । पिताजी को जब अपनी बहन का दुख मालूम हुआ तो वे उन्हें हमारे घर ले आए थे , हमेशा के लिए। मां के साथ बुआ की अच्छी जमती थी । बहुत खूबसूरत, थी, काम में बहुत कुशल और दिमाग की बहुत तेज थी बुआ, पर कभी स्कूल नहीं गई थी ।जब हम लोग प्राइमरी कक्षाओं में बारहखडी और गिनती लिखते थे , तब बुआ भी पास आकर बैठ जाती थी और देख देख कर पूरा लिख लेती थी। फिर हम से जांच कराने आती थी देखो ठीक लिखा है यह?मां भी हमसे कहती थी - अगर इनको पढ़ने दिया गया होता तो यह कलेक्टर जरूर बनती । इस पर बुआ लंबी सांस लेकर कहती- पढती कैसे भौजी? काली स्लेट पर लिखने पर तो हमारे घर के लोग कहते थे कि लड़कियां काली स्लेट पर लिखकर करम काले करती हैं ।
जब घर में दो-दो भाभियाँ आ गई थी तो बुआ रसोई का काम करने अब नहीं जाती थी। घर के बच्चे उनकी गोद में खेल कर बड़े हुए थे। बहुत सी पुरानी कहावतें उन्हें मुंह जबानी याद थी। दीवाली पर हमें जो पैसे मिलते थे और नवदुर्गा में कन्या भोजन पर जो भी एक दो पैसे पैर पूजन के मिलते थे , हम सब उनके पास इस तरह रख देते थे जैसे बैंक के लॉकर में रखते हैं। बुआ एक बड़े कपड़े में अलग-अलग गांठ लगाकर, हम भाई बहनों के पैसे रख लेती थी ।और उन्हें याद रहता था कि किस पोटली में किस बच्चे के पैसे बंधे हैं। घर के बड़े बगीचे में धनिया मेथी , पालक , टमाटर ,बैगन, तरोई लगाना उनका काम था। कद्दू का छोटा सा फल तोड़कर कभी-कभी राख में दबा कर उसका भुर्ता बनाती और हम सब को चखाती थी ।
धीरे-धीरे समय बदला । पिताजी की अकाल मृत्यु ने घर की तस्वीर ही बदल दी। अब मां , बुआ का समय जा चुका था। घर में बड़ी भाभी का राज था। हम लोग भी बड़े हो गए थे। बुआ की आंखों में कम दिखाई पड़ता था और धीरे-धीरे उनकी आंखों की रोशनी पूरी चली गई। फिर भी अंदाज से वे अपने सारे काम कर लेती थी। घर में दो गाय और एक पालतू कुत्ता था। कुत्ते का नाम टाइगर था । बुआ रोज अपने खाने में से थोड़ा सा बचा कर दोनों गायों और टाइगर को जरूर देती थी।
भाभी रोज व्यंग करती थी -"ये टाइगर बहुत सगा है तुम्हारा जो रोज ही उसे अपना खाना देती हो"। तो बुआ कहती थी- मैं दो कौर कम खा लूंगी तो क्या हुआ? टाइगर मेरे हाथ से खाने की रोज राह देखता रहता है। धीरे-धीरे बुआ बहुत तंग आ गई थी, अपने जीवन से। भाभी हर समय अपने व्यवहार से उन्हें याद दिलाती रहती थी कि वे घर में अनावश्यक सदस्य हैं ।
जब तक उनकी आंखें सही थी ,भाभियों के बच्चों को नहलाना धुलाना , मालिश करना ,खाना खिलाना और गोद में लिए लिए कंधे पर सुलाना, नजर उतारना, यह सब वर्षों तक उन्होंने किया था ।छोटे बच्चों से बहुत प्यार था उन्हे।
मुझे याद है जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी तो अटारी वाले बडे कमरे में हम लोग पढ़ा करते थे। घर में जो रोज की पूजा होती थी , उसमें दो बड़े सिंहासन थे। उसमें बारह - चौदह मूर्तियां रखी हुई थी, अलग-अलग भगवान की ।कुछ पीतल की थी और कुछ सफेद और काले पत्थर की। बुआ पूजा करते समय, सब मूर्तियों को थाली में रखकर नहलाती थी , फिर कपड़े से पोंछ पोंछ कर वापस रखती थी और चंदन लगाती थी। कभी-कभी बड़बड़ाने लगती थी कि भगवान तुमने हमें आंखों से लाचार कर दिया है। अब हम तुम्हें ऐसे ही बेतरतीब गलत गलत जगह पर रखेंगे ।×××
फिर वे छोटी कटोरी में शक्कर और तुलसी के पत्ते रखकर भगवान का भोग लगाती। वह दृश्य मुझे कभी नहीं भूलता जब मैं अटारी पर पढती रहती थी, उस समय और वे अंदाज से सीढ़ियां चढ़कर , शक्कर की कटोरी और तुलसी के पत्ते का प्रसाद लेकर धीरे-धीरे आखिरी सीढी तक आती थी। फिर मुझे आवाज देती- मिथिला , यह भगवान का भोग खा लो। मैं दौड़ कर उनकी कटोरी से पूरी शक्कर मुंह में डालकर उन्हें कटोरी वापस कर देती। फिर वे कहती - जब मर जाऊंगी तो तुम मुझे याद करोगी कि कोई मुझे रोज भगवान का प्रसाद देता था । कभी-कभी भाभी के व्यवहार से भी बहुत दुखी हो जाती तो सीढी पर मुझे प्रसाद देते हुए कहती- " मैं कब जाऊंगी ? अमर होकर तो आई नहीं हूं? पता नहीं कब सुनेगा भगवान मेरी?.
मुझे बहुत दुख होता था पर कुछ कर नहीं सकती थी। हम सब भी तो परतंत्रता में ही जी रहे थे तब ।फिर बुआ एक दिन भगवान के घर चली गई । दो दिन बीमार थी, मैं देर तक उनके पास बैठी रही, पर उन्हें होश नहीं था। पैसठ साल हो गए इस बात को। मेरे मन में बार-बार उनके शब्द गूंजते हैं -अमर होकर तो नहीं आई ना ? पता नहीं कब सुनेगा भगवान मेरी ?कब बुलाएगा , मुझे बताओ ना?और एक बात--बुआ के ओठो से निकल रहे ये शब्द, अब लगता है, मेरे दिल से निकल रहे होते हैं ।।
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