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खरबूज़ का टुकडा

 खरबूज़ का टुकडा

            -मिथिलेश 

         


 खरबूज का टुकड़ा 

                                                                         सिहोरा के पैतृक घर में हम सब इकट्ठे थे ।पिताजी का अंत काल हुए 5 वर्ष बीत गए थे । पिताजी के समय, घर की मालकिन मां होती थी और सारे निर्णय उनकी सहमति से होते थे। पिताजी के जाने के बाद 5 बच्चे पालने की जिम्मेवारी बड़े दोनों भाइयों ने ले ली थी। पर मां का जैसे वजूद ही खत्म हो गया था ।हम सब भाई बहन इसको महसूस करते थे और हर बात को यह सोचकर  सब्र कर लेते थे कि कभी समय बदलेगा। भाइयों के बच्चे भी हमारे छोटे भाई बहन की तरह थे। और मां ने अपने दुख को बच्चों की खुशी में छुपा लिया था ।

गर्मी के दिन थे।बड़े भैया एक बड़ा खरबूज लाए थे सुबह। दोपहर में माँ ने खरबूज काटा और उसकी फाँके कर के थाली में रखी ।फिर सरला दीदी और रघु दादा से कहा, कि घर में सब को  खरबूज के टुकड़े देकर आओ। बड़े लोगों को दो-दो और बच्चों को  एक एक।

खरबूज की बंटाई खत्म हो गई थी। 

         मैं करीब 8 वर्ष की थी । कमरे के अंधेरे कोने में सोई थी । जब सो कर उठी  तो देखा  कि  माँ खरबूज के छिलके समेट रही है ।मैं पूछने लगी  - मेरे हिस्से का खरबूज कहाँ है?मां मुझे खरबूज  देना भूल गई थी। तो मैं रुआंसी  हो गई । माँ  ने अपनी भूल सुधारते हुए कहा- देखो ,अभी-अभी बड़े भाई साहब बाहर से आए हैं। उनका हिस्सा मैंने उनके कमरे में भिजवा दिया था।  अगर उन्होने  नहीं  खाया होगा, तो थोड़ा सा टुकड़ा तुम्हें मिल जाएगा । 

मैं बहुत खुश हो गई । सरला दीदी और रघु दादा मेरा हाथ पकड़े हुए  भाग भाग कर भाभी के कमरे में पहुंचे ।जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा कि भाभी पलंग पर बैठी है। और भैया प्लेट में रखे खरबूज के टुकडे खा रहे हैं ।भाभी ने हमें देखते ही जोर से कहा- क्या है? यहां क्यों आए हो? सरला दीदी ने घबराकर हकलाते हुए  कहा- माँ  इसको, याने मुझे खरबूज देना भूल गई है ,क्योंकि यह सो रही थी और माँ  ने कहा है कि बड़े भैया से एक छोटा टुकड़ा मांग  कर इसको दे देना।

   यह सुनते ही भाभी के दिमाग का पारा गरम हो गया।  अपने   सिर पर दोनों हाथ पटकते हुए बोली- हे भगवान, ये आ गए भिखारी के बच्चों की तरह !! इनके रहते तो किसी के मुंह में , कोई चीज कभी जा ही नहीं सकती।

 मैं छोटी थी पर मुझे अच्छी तरह समझ में आ गया था भाभी का गुस्सा और उनके शब्दों में छुपा तीखा व्यंग। मैं वापस लौटने लगी। सरला दीदी से  मैंने कहा- मुझे नहीं खाना है खरबूज। दीदी मुझे मुझे निरीह सी हो कर देख रही थी ।और मैं उनका हाथ छुड़ाकर वापस कमरे से भाग रही थी ।तभी भैया ने एक टुकड़ा खरबूज मेरे हाथ पर रख दिया ।और हम भाई-बहन अपने कमरे में वापस आ गए , डरे सहमे हुये । माँ  को कुछ नहीं  बताया ।

  वापस आकर मैंने खरबूज का टुकड़ा खाया या नहीं, यह तो मुझे याद नहीं । पर भाभी के कहे गए शब्द आज तक नहीं भूले "ये भिखारियों के बच्चों की तरह आ गए"!!! बाद में जब मैं  बड़ी हो गई, शादी भी हो गई ।तब  बाद की जिंदगी में किसी ने खाने पर कोई रोक नहीं लगाई। पर  सत्तर साल पहले की  वह घटना , पता नहीं क्यों, भूल नहीं पाई ।वह खरबूज का टुकड़ा और उस पर चिपके हुए जहरीले शब्द अभी  तक याद हैं मुझे !!!

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