तिरुपति भगवान का चमत्कार
-मिथिलेश
तिरुपति भगवान का चमत्क
मुंबई के एक बड़े केंद्रीय विद्यालय में 10 साल नौकरी करने के बाद ,हम दोनों ट्रांसफर होकर ,दार्जिलिंग जिले के बेंगडुबी नामक स्थान में पहुंचे जो आर्मी का स्टेशन था। बड़ा कठिन समय था हमारे लिए।बच्चे 12 ,15 और 17 साल के थे। दो बच्चों का 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा का साल था। तीन गाड़ियां बदलकर, पूरा घर गृहस्थी का सामान लेकर हम लोग नए स्थान पर पहुंचे। पर यह अच्छी बात थी कि हम दोनों का स्थानांतरण एक ही विद्यालय में हुआ था ।ट्रांसफर में सामान की बड़ी तोड़फोड़ हुई। महंगा कांच का सामान ,सोफा, अलमारी सब टूट गए। नई जगह में ,नए लोगों के साथ जिंदगी शुरु हुई। मुंबई के स्कूल को हम लोग महासागर कहते थे जहां कोई किसी की जिंदगी में दखल नहीं देता। अब नए स्थान में थे जहाँ उड़ीसा, बंगाल,बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग ज्यादा थे। उनकी नैतिकता की परिभाषाएं भी अलग ही थी ।कोई भी ऐसा काम जो उनके खुद के स्वार्थ को ,किसी भी कीमत पर पूरा करता हो, सही था, जायज था उनके लिए ।
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मुंबई में 10 वर्ष तक विद्यालय के सरकारी क्वार्टर में थी। यहां विद्यालय के सारे लोग जो अलग-अलग प्रांतों से आए हुए थे एक दूसरे की मदद करने को हमेशा तैयार रहते थे। जबकि महानगर के लोग इस मानसिकता के बारे में बदनाम थे कि मुंबई में तो कोई किसी का नहीं होता। कोई किसी से मतलब नहीं रखता। पर हम लोगों ने जो अनुभव अपने सहकर्मियों के साथ रहकर किया था , वह लाजवाब था यहां हितैषी बनने का कोई दिखावा नहीं करता था ।
हाँ, तो दार्जिलिंग के प्रकृति का नजारा बहुत सुंदर था। हमारे दो मंजिले घर की खिड़की से, दूर पर, सुंदर कंचनजंगा की पहाड़ियां दिखती थी। अगर मौसम साफ हो तो झिलमिलाते हुए सुंदर पानी के झरने भी दिखाई पड़ते थे। दूर तक फैले सुंदर जंगल चारों तरफ और बीच में काली सड़क, जिन पर फौजी गाड़ियां दौड़ती थी।
दार्जिलिंग की उस बस्ती में आर्मी का माहौल था। जहां बड़े अफसर और छोटे कर्मचारियों के बीच में भारी अंतर दिखाई देता था। जैसे दोनों की स्थिति जमींदार और किसान जैसी हो। विद्यालय के शिक्षक दोनों प्रकार के लोगों से ,बराबरी से जुड़े हुए थे। वही एकमात्र विद्यालय था, जहां बिना भेदभाव के सभी श्रेणी के बच्चों को दाखिला मिला हुआ था।
साल का प्रारंभ हो गया था और विद्यालय में पढ़ाई शुरू हो गई थी। आदतन कुछ लोग कक्षा में बहुत देर से जाते थे। कुछ लोग कभी-कभी हाजिरी देकर वापस स्टाफ रूम में गप्पे मारने बैठ जाते थे ।बहुत से शिक्षकों को पढ़ाना एक बोझ लगता था और बाहरी कामों में उलझे रहना ही, उनकी कामयाबी थी ।
स्टाफ रूम में फौजी अफसरों की पत्नियां ज्यादा थी, जो अपने पतियों और अफसरों के किस्से ,बड़े चटकारे ले लेकर सुनाती रहती थी। थोड़े दिनों बाद दो शिक्षकों के बीच मारपीट हो गई और अब शिक्षक भी दो दुश्मन ग्रुप में बैठ गए थे, जो तरह-तरह से एक दूसरे को तंग करते रहते थे। जिस ग्रूप में हम लोग थे वह गिने-चुने लोगों का ग्रुप था और इसी माहौल में ,लड़ाई झगड़े की बातें सुनते हुए दोनों बच्चों की बोर्ड की परीक्षा हो गई।
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नए प्रदेश पश्चिमी बंगाल में उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के के लिए अलग नियम थे जिसके अनुसार बड़े बेटे को 12वीं के बाद किसी टेक्निकल कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला। केवल अच्छे अंकों के आधार पर वह राजस्थान के पिलानी विश्वविद्यालय में चला गया , जिसकी कीमत उसकी भारी फीस देकर हम 4 साल तक झुकाते रहे ।अब दूसरा छोटा बेटा भी 12वीं पास हो गया था।हम लोगों को पूरे 3 साल हो चुके थे इस स्थान में,जहाँ हम बेहद परेशान थे। मानसिक रूप से भी और इनके तो शरीर पर भी असर हो गया था।
छोटे बेटे को कहीं एडमिशन न मिल पाने के बाद, हमने उसे एक फौजी परिवार के साथ मुंबई भेज दिया, जहां एक रिश्तेदार के घर में रहकर , वह कॉलेज के प्रथम वर्ष में पढ़ने लगा। इसी बीच नेशनल डिफेंस एकेडमी की परीक्षा का रिजल्ट भी आ गया।बेटा सफल नहीं हो पाया था। अन्य किसी भी टेक्निकल कॉलेज में, किसी ना किसी बहाने से उसे दाखिला नहीं मिला था। 17 साल का वह लडका ,अपने आपको हमारी चिंता का कारण समझने लगा था। यह हमारे लिए दुखद था ।
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: फिर जिंदगी चल पड़ी। इस बीच हमने मुंबई वापस ट्रांसफर के लिए ,दिल्ली हेड क्वार्टर तक, कई चक्कर लगाए। पर कहीं से कोई उम्मीद न थी। कुछ बड़े अधिकारियों ने तो हमें अपमानित करके , यह कहा कि दोनों एक ही विद्यालय में हो, तब तुम्हारे ट्रांसफर की क्या जरूरत है ?मुंबई किस लिए चाहिए ?
दिसंबर की छुट्टियों में मैं छोटे बेटे से मिलने मुंबई आई ,जो हमारे रिश्तेदार के घर रह रहा था। वह, बहुत ज्यादा परेशान था। उसने मुझसे दिल खोलकर सारी समस्याएं बताई और कहा कि मैं यहां नहीं रह सकता हूं। उसकी बात सुनकर मैंने उसे आश्वासन दिया कि मैं मुंबई में उसके अकेले रहने की व्यवस्था जल्दी ही, कहीं ना कहीं कर दूंगी। वह अंतर्मुखी प्रकृति का था। किसी से अपनी परेशानी कभी नहीं बताता था। इस कारण वह मानसिक और शारीरिक विकृतियों का शिकार भी बनने लगा था, ऐसा मुझे लगा।
इस बीच फिर उसकी नेशनल डिफेंस एकेडमी की परीक्षा थी। लौटते समय वह अपना एडमिशन कार्ड सिटी बस में भूल आया जो मुश्किल से वापस मिला। मैं वापस दार्जिलिंग अपनी ड्यूटी पर आ गई थी। मुंबई से मेरे कार्यस्थल तक आने के लिए, तीन तीन गाड़ियां बदलना पड़ती थी। और मैं अकेले ही सफर करती थी। जिंदगी ने बहुत कुछ सिखा दिया था। अपनी परेशानी और समस्या को खुद तक ही सीमित रखती थी।
5.
एक महीने बाद फिर लंबी छुट्टी लेकर मैं मुंबई आ गई । बेटे को नए घर में शिफ्ट किया। जहां सिर्फ दीवारें थी। घर की पूरा जरूरी सामान खरीदा। बेटे को खाना बनाना सिखाया और अकेले रहकर क्या सावधानी रखना चाहिए, समझाती रही। फिर मैं अपने पुराने सहकर्मियों से मिलने गई । कई प्राचार्यो से भी मिली, पर किसी से कोई उम्मीद नहीं थी। किसी विद्यालय में कोई जगह ,हम लोगों के लिए खाली नहीं थी। दो समस्याएं सबसे प्रमुख थी। एक हम लोग का वापस मुंबई ट्रांसफर होना और दूसरा बेटे का किसी टेक्निकल कोर्स में एडमिशन होना। मैं रोज देर तक प्रार्थना करती। शिर्डी गई ,सिद्धिविनायक मंदिर गई ।
तभी मुझे चेन्नई से किसी अफसर ने कुछ काम से बुलाया।काम के बाद मैं तिरुपति मंदिर, दर्शन के लिए गई ।तिरुपति में अनजाने लोगों ने मेरी मदद की। अपने साथ रात में रुकाया । भगवान से मेरी प्रार्थना थी, मन्नत थी,कि मेरे यह दो काम हो जाना चाहिए। हम लोगों का वापस मुंबई ट्रांसफर और बेटे का कहीं अच्छी जगह एडमिशन।
मुझे ड्यूटी के लिए फिर दार्जिलिंग वापस आना
6.
मुझे ड्यूटी के लिये वापिस दार्जिलिंग आना पड़ा ।अब की बार छोटी बेटी भी दसवीं बोर्ड की परीक्षा दे चुकी थी। मैंने वापस आकर ,इनको बताया कि मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है। आगे समस्याओं का हल होना, भगवान के हाथ में है। तब ये निराशावादी मन से बोले- कुछ भी नहीं हो सकता है, तुम बेकार ही उम्मीद लगाए बैठी हो। मैं बहुत निराश हुई।
उस दिन दोपहर में मैं विद्यालय से घर आने के बाद मैं सो गई। सपने में देखा कि मैं तिरुपति के मंदिर में हूं। मेरे दोनों हाथों में दो सोने की चीजें हैं और मैं उन्हें हुंडी में डाल रही हूं। उसके बाद मेरी नींद खुल गई। उठकर मैंने इनसे जल्दी से कहा- देखो, इस बार हमारे दोनों काम पूरे हो जाएंगे। मैंने दो सोने की चीजें तिरुपति की हुंडी में डालते हुए ,अपने आपको सपने में देखा है। ये आदतन मेरी इस तरह की बातों का मजाक उड़ाते थे, तो बोले- तुम तो ऐसे कुछ भी सपने देखा करती हो। कुछ होना जाना नहीं है।
पर हुआ वही जो मालिक ने हमारे लिए सोच रखा था। एक महीने बाद बेटे का एन डी ए की लिखित परीक्षा का रिजल्ट आया और वह सफल हुआ। मेडिकल, इंटरव्यू के बाद, नेवी अफसर के कोर्स में उसका एडमिशन पुणे में हो गया। अब उसका भविष्य सुरक्षित था।
7.
अप्रत्याशित रूप से, मुंबई के एक नए विद्यालय में ऊंची कक्षाओं खोलने की अनुमति ,दिल्ली हेडक्वार्टर से दे दी गई। इस विद्यालय में हम दोनों के विषय की पोस्ट थी। और हम दोनों के ट्रांसफर का आर्डर आ गया। यह सब बहुत अजीब था। बेटी भी दसवीं कक्षा पूरी कर चुकी थी और हमारी सब समस्याएं ,एक साथ हल हो गई ।
वापस मुंबई आने के 1 महीने बाद मैं अपना वादा पूरा करने ,तिरुपति मंदिर गई। मेरी मन्नत बहुत ही सुंदर रूप से पूरी हुई थी। मैंने अपने कान की सोने की दोनों बाली उतारी और एक एक हाथ में लेकर मंदिर की हुंडी में डाल दी। यह दूसरी बार मेरे ऊपर भगवान की कृपा थी । चमत्कारिक रूप से मेरी समस्याओं का हल सिर्फ परमात्मा ही कर सकता था। उसके बाद साथी लोग जब व्यंग में मुझसे पूछते कि आपने तो ट्रांसफर के लिए बड़ी पहुंच लगाई होगी, तो मेरा जवाब होता था- हां जिसने मेरा काम किया है वह बहुत ऊंची पहुंच वाला है। वह हम सब से बहुत ऊपर है। पर वह हम जैसे छोटे लोगों की भी सुनता है।हाँ, उस तक अपनी बात पहुंचाने के लिए शब्दों की जरूरत भी नहीं पडती ।
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अद्भुत ईश्वर की कृपा से सभी समस्यायों का निराकरण हुआ। उनकी महिमा अपरंपार । उन्हें सादर वंदन ।
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