चलते चलते - प्रार्थना
-मिथिलेश कुमारी
,
चलते चलते
चलते चलते थक गए प्राण
कैसा तू अरे हृदयवासी,
तेरी करुणा के खुले द्वार,
मन किन्तु भटकता बार बार,
एकाकी प्राणो की पुकार,
सुन सके न क्यो तुम? हे उदार,
यह लोभ मोह का विषम जाल
कब तोडोगे बन्धन विशाल?
तुम करुणा के हो बने सिन्धु,
मन तरसा पाने एक बिंदु
चलते चलते थक गये प्राण,
कब मुझे मिलेगा यहा त्राण?
चलते चलते थक गए प्राण।।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें