अधूरी आस
- मिथिलेश कुमारी
अधूरी आस
उस अधूरी आस को फिर
रात भर जीती रही ,जो
कल्पना के पंख बांधे
आस्माँ को छू रही थी-----
डोर फिर जब हाथ आई ,
तब धरा पर खींच लायी ,
सत्य का पिंजरा खुला था ,
राह तकता बेबसी का ------
किन्तु जब आँखे खुली तो,
ओस का मोती दिखा था,
झिलमिलाता ,मुस्कुराता ,
और यह संदेश देता -----
देखना बन्दिश नही है
छुओगे तो मिटा दोगे,
इन्द्रधनुषी रंग हैं ये,
इन्हे कैसे पकड़ लोगे ---
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