यादो की महक
-मिथिलेश कुमारी
यादों की महक
यादों मे इत्र बसा है,
महक महक जाता है,
मन को कितना रोकूँ ,
बहक बहक जाता है
शब्दों की लहरें तो,
मन के गलियारे में ,
दौड़ दौड़ आती हैं,
ओठों के बंद द्वार,
खोल नहीं पाती हैं ।
कैसा ये बंधन है,
प्राणो का प्राणो से,
कैसे गाँठै खोलू
फिर फिर कस जाती हैं।
मीलों की दूरी है
कैसी मजबूरी है
पिंजरे का पंछी
क्यो भाग भाग जाता है।
लहरें तूफानी हैं
तट तक तो आती हैं
मर्यादा का पहरा फिर,
खाली हाथ लौटाता है।
कैसी यह तड़पन है,
मन कितना बेबस है,
रिश्तों के धागों को
कितना सुलझाऊ मै ,
उलझ उलझ जाता है।
उलझ उलझ जाता है।।
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