सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

बड़े भाई साहब


बड़े भाई साहब -एक संस्मरण
         
आज फादर्स डे था पिताजी को तो मैंने देखा नहीं, बड़े भाई साहब को ही समझा पिता समान। वे 25 साल बड़े थे मुझसे। बचपन की कुछ घटनाएं याद हैं। भैया लंबे थे गोरे और सुंदर दिखते थे, भाभी सांवली चेचक के दाग वाला चेहरा लेकिन बहुत ही स्मार्ट। बातों में इतनी तेज कि सब को हरा देती थी। भैया भी
उनकी होशियारी के कायल थे। पर पिताजी के मरने के बाद सौतेली मां के 5 बच्चों की जिम्मेवारी दोनों बड़े भाइयों ने ओढ रखी थी। मेरी मां जो उनसे 9 साल बड़ी थी, उनकी हर बात को मान लेती थी।
भैया दोपहर में देर से खाना खाने घर आते थे, बड़ा घर था। मैं कुछ 5, 6 साल की थी। एक छोटी कोठरी में सफेद मिट्टी रखी होती थी। मुझे बडी स्वादिष्ट लगती थी। मैं चुपचाप दोपहर मे जाकर दरवाजा बन्द करके मिट्टी खाया करती थी, बहुत अच्छी लगती थी। एक दिन भाई साहब ने देख लिया की इतनी दोपहर में कोठरी मे कौन है। मुझे मिट्टी खाते देख बहुत जोर से चिल्लाए और एक चाँटा भी मारा। मैं बहुत देर तक सिसक सिसक कर रोती रही पर बताया किसी को नही ड़र के मारे पर फिर मिट्टी कभी नही खाई।
फिर हम सब भाई बहन बड़े हो गए। 
 भैया का ट्रांसफर जबलपुर हो गया बच्चे भी वहीं पढ्ने लगे। उनका बडा बेटा मुझ्से चार साल छोटा था बिल्कुल मेरे छोटे भाई की तरह था। जब वह ग्यारहवी में पहुंचा तो भाभी ने जिद की कि मैं उनके साथ रहूं बच्चे को पढ़ाने के लिए। मेरी भी सर्विस हाईस्कूल में लग गई थी, 20 वर्ष की थी मैं ग्रेजुएट हो गई थी। स्कूल से आकर भतीजे को पढ़ाती रहती थी, कमजोर था वह पढ़ाई में, कभी-कभी उसको गुस्सा भी करती थी गणित जल्दी नहीं समझ पाता था पर मुझे बहुत प्यार भी करता था। भाभी जब गुस्सा करती तो बहुत पक्ष लेता था मेरा। उस घर में 
भाभी के व्यंग्य के तीरों से भैया और यह बड़ा बेटा मुझे बचाते रहते थे। भाई साहब को जब समय मिलता तो कुछ साहित्य राजनीति फिलॉसफी की बातें भी हम कर लेते थे जैसे चित्रलेखा मे पाप पुण्य की परिभाषा। तभी संक्रांति पड़ी और 4 तरह के लड्डू बनाए, घर में भाभी बताती जाती थी मेहनत मेरी होती थी। लड्डू बनाकर डिब्बों में रख दिए, 3 दिन हो गए सब ने लड्डू खाए मैंने नहीं क्योंकि जब तक भाभी खुद ना दें मैं खाती नहीं थी। उस दिन छुट्टी थी सुबह नाश्ते में सब लड्डू खा रहे थे भाई साहब ने पूछा तुमने कितने लड्डू खाए मैं चुप रही दोबारा पूछा फिर भी मैं कुछ बोली नहीं तो समझ गए कि इसने लड्डू नहीं खाए हैं फिर जोर से बोले इसको लड्डू क्यों नहीं दिए इसने इतनी मेहनत से बनाए हैं और भाभी का जो मूड बिगड़ा तो घर मे आधे घंटे तक महाभारत होता रहा।भाभी बोली तुम तो इस तरह बोल रहे हो जैसे यह मेरी सौत की बच्ची है, मैं बहुत आहत हुई। फिर भाभी गुस्से में लड्डू की प्लेट भरकर लाई, मैंने खाया भी पर ऐसे जैसे वह ज़हर का स्वाद हो।
सुबह मुझे स्कूल जाने की जल्दी होती थी नहाकर कपड़े धो लेती थी सुखाना कभी भूल जाती थी कई बार तब भाई साहब चुपचाप भाभी की नजर बचाकर मेरे कपड़े सूखने डाल देते थे। एक दिन भाभी ने देख लिया उनको भी डांटा और मेरी तो शामत ही आ गई, "शरम नही आती भैया कपड़े सुखाने डालते है इतनी बडी हो गई हो"। भतीजा अच्छे अंको से पास हुआ और उसका एडमिशन भी टेक्निकल कोर्स में हो गया
मैं वापस मां के पास आ गई
2 साल बाद जब मेरी मेरी शादी होने वाली थी भैया ने सब काम संभाला, उन्होंने छुट्टी ले ली थी।
जब मेरी विदा होने लगी सड़क पर कार लगी थी घर की महिलाएं रो-रो कर मुझे कार में बिठाने ले जा रही थी  तभी दहाड मार कर किसी के रोने की आवाज आई। बड़े भाई साहब थे, मुझे पकड़कर बहुत रोए। मैंने कभी उन्हें इस तरह रोते नहीं देखा था, उस दिन मुझे लगा मेरे पिताजी सचमुच उनमें उतर आए हैं।
भैया को गए 18 वर्ष हो गए।
आज फादर्स डे पर उनको शत शत नमन करती हूं।
मेरे बड़े भाई साहब जिनके पत्र आज भी मैंने संभाल कर रखे हैं इतने सालों बाद भी।।
                      -मिथिलेश कुमारी


टिप्पणियाँ

  1. भाई साहब को बहुत अच्छी श्रद्धांजलि दी है तुमने । दिल से निकली हुई भावपूर्ण श्रद्धांजलि है ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सूची और ब्लोग कैसे खोले

  सूची और ब्लोग कैसे खोले              - मिथिलेश खरे How to open blog......click blue address....then 3 lines on right,  then,संगृहीत करे।monthwise list will open...then click the month,you  will get poems,stories of that month...so plese see and give your comments..thanks Thanks and comment. ब्लाग कैसे खोले: mithileshkhare33.blogspot.com ब्राउज़र मे डालें, बलौग खुल जाएगा 7  8 कविताएं। और पढें पर क्लिक करें कविता वीडियो खुल जाएगा। जब सब देख ले अधिक पढें पर व्लिक करें 7  8 कविताएं और खुल जाएंगी। इसी प्रकार अन्त तक खोल सकते हैं।

सपना बचपन का

सपना बचपन का             -मिथिलेश सपना बचपन का  एक सपना मुझे बचपन से बार-बार आता था ।जबलपुर के घर का पहला कमरा है ।उसमें बीच में कोई सफेद चादर ओढ़ कर सोया हुआ है ।चादर पूरी इस तरह से  ओढ रखी है कि सोने वाले का मुंह नहीं दिख रहा। घर में ढेर सी औरतों का जमावड़ा है । मेरी मां बीच में बैठी हुई है । फिर कुछ लोग आए चादर ओढ़े उस आदमी को वैसे ही कंधे पर उठाकर ले जाने लगे । मां जोर से    चिल्लाने  और  रोने लगी और भागने लगती है। मैं मां की साड़ी का पल्ला पकड़ के खड़ी हो जाती हूं। भागती हुई मां को औरतों  ने बहुत जोर से पकड़ रखा है ।चारों ओर  से जकड़  रखा है । मै औरतों की इस भीड़ में घुस कर अपने छोटे छोटे हाथों से उन औरतों को मार रही हूं । मुझे  उन पर बहुत गुस्सा आ रहा है । मैं  सोच रही हूँ कि  वे सब मिलकर मेरी मां को बहुत तंग कर रही हैं। और मैं मां को बचा रही हूं । यह सपना मुझे करीब 12 वर्ष की उम्र तक कई बार आता रहा । बड़े होने पर मुझे समझ में आया कि यह सब क्या है। पिताजी की मौत अचानक ह्रदय गति रुक जाने से हो...

मै जीती रहूंगी

  मैं जीती रहूंगी           *मिथिलेश खरे          मैं जीती रहूंगी जिंदगी के पहले ,मर जाना नहीं, बल्कि जिंदगी के बाद भी जीना चाहती हूँ मैं , जीती रहूँगी यूं ही पता है मुझे- हां ,पता है मुझे ..... पता है मुझे पता है मुझे जब कभी मेरी बेटी कोई पुरानी नोटबुक के अनदेखे पन्नों को पलटेगी, तब बार-बार मेरे शब्द उसके दिल में उतर जायेंगे, उसके दिल में उतर जाएंगे पहले जो अनकहा रह गया था , वह सब फिर से कह जाएंगे ! पता है मुझे, पता है मुझे --- पता है मुझे पता है मुझे मेरी धीमी सी आवाज कभी प्यार की ,कभी डांट की कभी शिकायत की ,कभी उलाहना की अकेले में उसे बार-बार सुनाई देगी उसकी गहरी आंखों के कोरों को अनायास ही नम करती रहेगी ! य...