आस का पंछी
- मिथिलेश कुमारी
आस का पंछी
मिथिलेश कुुमारी
था सुखों का स्वप्न देखा रात भर,
मन गगन पर चंद्रिका छाई रही।l
ओस जब टपकी नयन के द्वार से,
सत्य ने पूछा, सवेरा हो गया?
सत्य ने पूछा-सबेरा होगया?
भावना की किरण भीगी डाल पर,
आस का पंछी बनाए नीड था।
तीर मारा तभी निर्मम भाग्य ने,
कल्पना का शिशु सदा को सो गया।
कल्पना का शिशु सदा को सो गया-----
कौन कहता मौन है अंतर्व्यथा?
मुखर होकर पर्त उर के चीरती।
रात भर जलती रही जो वर्तिका,
प्रातः बन कर सो गई, वह पीर थी।
प्रात बनकर सो गई,वह पीर थी।
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