- मिथिलेश
मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती
जल न पाती, बुझ न पाती,
मैं तुम्हारे जिगर की हल्की तपिश भी,
सह न पाती , सहम जाती,
क्या सही है , क्या गलत है,
मौन रहकर कह न पाती।
थरथराती, कंपकपाती ...
मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती ।।
आंधियां और तूफान तो आए बहुत थे ,
और बरसातें अंधेरी रात की भी ,
किंतु अपनी क्षीण काया में सिमटकर ,
जोर से जकड़े रही डोरी तुम्हारी ..।
लरजती सी , झिलमिलाती ,
मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती ..।।
आस्था के ढेर में चिंगारियां थी,
और बिन मौसम झरी वे पत्तियां भी,
कुछ जली कुछ अधबुझी सी,
चीख को भी राख में फिर।
दबा देती , गड़ा देती,
मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती....।।
अधर पर सख्ती भरे पहरे लगे थे ,
और भीतर घाव कुछ गहरे लगे थे ,
जिगर में सैलाब जब भरपूर आया,
आंख में जल बूँद ने उसको रुकाया।
सुलगती सी , पिघलती सी,
मैं तुम्हारे दीप के अनमेल बाती ।
जल न पाती ,बुझ न पाती-----।।
मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती ।।
आंधियां और तूफान तो आए बहुत थे ,
और बरसातें अंधेरी रात की भी ,
किंतु अपनी क्षीण काया में सिमटकर ,
जोर से जकड़े रही डोरी तुम्हारी ..।
लरजती सी , झिलमिलाती ,
मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती ..।।
आस्था के ढेर में चिंगारियां थी,
और बिन मौसम झरी वे पत्तियां भी,
कुछ जली कुछ अधबुझी सी,
चीख को भी राख में फिर।
दबा देती , गड़ा देती,
मैं तुम्हारे दीप की अनमेल बाती....।।
अधर पर सख्ती भरे पहरे लगे थे ,
और भीतर घाव कुछ गहरे लगे थे ,
जिगर में सैलाब जब भरपूर आया,
आंख में जल बूँद ने उसको रुकाया।
सुलगती सी , पिघलती सी,
मैं तुम्हारे दीप के अनमेल बाती ।
जल न पाती ,बुझ न पाती-----।।
××××××××××××
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं