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और वह घर पुकारता रहा

  और वह घर पुकारता रहा               -मिथिलेश कुमारी         और वह घर पुकारता रहा !  याद आता रहा रातभर, मुझे भी, वह पुराना घर  मेरा! मेरा नही ,हमारा। उसके आंगन में भाई, बहिनो के साथ लुका छिपी खेले, बस्ता पीठ पर टांगकर स्कूल गए, लालटेन  की रोशनी में, जमीन  पर बैठ कर,  नीली स्याही   की दावात में कलाम डुबोकर सबक किया। घर की रसोई से उठी ताजी बाटी की सुगंध और लाइन से पीडे पर बैठाकर खाना,  किसी फाइव स्टार  खाने  से कम नहीं  था।  कौन पहले आम खतम करता है..के चक्कर में बिना पूरा चूसे ही उठ जाना... कितना  सुकून देता  था, वह जीत जाना!             हम सब एक साथ उमर की सीढ़ी  पार करते गए, हाफ पेंट से फुल पेंट पर आ गए, बहिनो का बाहर खेलना बंद हो गया ।पिताजी की चिंता बढ़ती गई, मां.. दादी की हिदायतें भी।             फिर हाई स्कूल के दिनो का आखिरी दौर, जब नोट बुक में पीछे के पन्नो पर शायरी भी लिख लेते  ...